२२-मेला-ठेला । मसल है,-. . "काजी काहे दुबले शहर के अन्देशे। जमाने भर की फिकिर अपने ऊपर अोढ़े कुढङ्गों के कुढङ्ग से कुढते हुये मनीमन चूरचूर नहूसत का वोझ सिर पर लादे पच महा- . राज उदासीन घर बैठे रहा करते थे। आज न जानिये क्यों मेला देखने का शौक चर्राया तो दो घड़ी रात रहते भार ही को खूब सज-धज पुराने ठिकरे पर नई कलई के भांति तेल और पानी से बदन चुपड़ घर से निकल चल खड़े हुये। मेला क्या देखने गये मानो अपना मेला औरों को दिखाने गये। खैर पढनेवाले जैसा समझे। एक ओर से निपटते चलिये-"चलो हटो बची", "सभा मे दोस्तों इन्दर की. प्रामद है," "मस्तो सम्हत बैठो जरा हुशियार हो जात्रा " भिंगुरू साव की सवारी है । खड्डेदार बुल्ला सर भर मास हो तो रफू हो, उस पर खूबसूरती और नजाकत के नखरे किससे देखे जाय १ अवे श्रो! कांचवान सोता है क्या ? जरा चेत कर जोड़ी हाँक | जानता नहीं, मेला है, झमेला है, तमाशबीनों की भीड़ का रेला है। यह दूसरे कौन हैराय दुलभचन्द के पोते राय सुलभचन्द। । “नाम बखनचन्द मुंह कुकरै काटा" . मानी मात का लोंदा यूहा सा रक्खा हुश्रा । विधाता की अद्- भुत सृष्टि का एक नमूना । किस मतलब में गढ़ा गया, कोन बतला सकता है ? कुम्हार का वतन हाता, बदल लिया जाता। हाँ जाना, ब्रह्मा महाराज इसको गढ़ते समय दा चित्तं हो दुविधे मे पढ़े या- ' "लुक एक बार--हाय में लिये रहे हो।
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