हुए हिन्दी की ओर अविचल भक्ति के कारण लगातार ३२ वर्ष तक" "हिन्दी-प्रदीप' निकालते चले गये । अन्त में संवत् १९६७ अर्थात् सन् १६१० ई० में उनके एक लेख पर सरकार ने पत्र से जमानत मांगी। यही नहीं, एक सभा का सभापतित्व करने पर उन्हें अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पडा । ऐसी दशा मे उन्हें अपना प्रिय पत्र 'हिन्दी-प्रदीप . बन्द कर देना पड़ा। इसके उपरान्त कालाकॉकर से निकलने वाले 'सम्राट नामक साप्ताहिक-पत्र का उन्होंने कुछ दिन सम्पादन किया। इस समय के कर्मयोगी', 'मर्यादा', 'सम्राट् इत्यादि तत्कालीन पत्र- पत्रिकाओं में भी लेख लिखते रहे । फिर बाबू श्यामसुन्दरदास के बुलाने पर 'सम्राट' को छोडकर वे काशी नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रवेशित 'हिन्दी शब्दसागर' नामक वृहत कोष के सम्पादन के लिए बनारस चले गये और उसे पूर्ण उपयोगी बनाने में उन्होंने पर्यास परिधम किया। दिसम्बर १६१३ ई० में वे प्रयाग लौट आये और यहीं श्रावण शुक्ल १३ तदनुसार १४ मितम्बर १९१४ को उनका स्वगवास हो गया। भारनेन्द जी क बाद हिन्टी-क्षेत्र में भट्ट जी का युग कहा जाय तो कदाचित कोई अत्युक्ति न होगी। उनका सम्पर्क उस समय के प्रायः सभी बड़े-बड़े हिन्दी-साहित्यकारों से था । प. प्रतापनारायण मिश्र, पं० राधाचरना गोस्वामी, बाबू बानमुकुन्द गुप्त, पं. गोविन्द- नागयण मिश्र, पं० शिवनाथ मिश, पं० श्रीधर पाठक, पं० किशोरी लाल गोस्वामी, पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं मदनमोहन मालवीय, बाबू गंगाप्रसाद गुन इत्यादि से उनका षिक्ष परिचय और विशेष महजी तेजस्वी लेखा थे। भाषा पर उनका अणधार अधि- पार था। उनके लेखों की भाषा सिषय के अनुसार होती थी यदि के हास्यचा ठोज्ञ लिपते थे तो भाषा भी वैसा ही हारजमनी, रसीली
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