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५४ : भक्तभावन
 

अथ हनुमानजी के कवित्त

बाने वीर जंगी जंग जारी बजरंग वीर। अंकित करी है लंक रंकित झड़ाझड़ी।
डारे नाग फांस चरख बांधि के पछाड़े फेर। छाती चढ़ि टक्कर में टक्कर तडातड़ी।
ग्वाल कवि मोतीचूर को लुआ कितेकन को। दे दे ताल कुधन सुभट्टन सड़ासड़ी।
फुट्टत सुमेर फेर टूट्टत विमान आन। असुरो अटुट शशि कुट्टत कड़ाकड़ी॥६॥

कवित्त

कोने जुद्ध उद्धत प्रसिद्ध दुरबुद्धिन सों। कुद्ध कुछ वृद्धित प्रसिद्धित अंत का जब।
रेले रुई दस्त हस्त वेलेकरि कस्त फेर। दस्ती औ उदस्ती मूल संपत झमका जब।
ग्वाल कवि बैठ कल वेदावेस कैंची ऐच। बहिबली दिज्जित वडे बल का जब।
शंका घुम लोक लोक लोक केसुण्ड का फूटा। लंका में लसँया हनुमान वीर बंका जब॥७॥

कवित्त

लंकागढ़ उद्धत प्रसिद्ध हनुमंत जाइ। वीर बलवंतन में करत तकातकी।
कोने हय कोड़ा नार सिंघन पछाड़ फेर। वाला दस्त स्वस्तन समस्त में चकाचको।
ग्वाल कवि डोरि करि बगली उलट्टे चट्ट। थप्पन पें पप्पडुक्क दुक्क को भकाभकी।
सुक्कत सुरेश वेश लुक्कत दिनेश हिये। रुक्कत महेश शेष धुक्कत धकाधकी॥८॥

भैरव के कवित्त

शिवजू के नंदन अनंदन के कंद बूंद। दुष्टन निकन्दन अमन्दता लसी रहे।
माथे पे विभूत भूत प्रेतन के नाथ नीके। दूत मजबूत ले अभूत ता कसी रहे।
ग्वाल कवि दास को हुल्लास कर भाल शशि। विविधि विलासकर सुखमा रसी रहे।
ऐहो विधि विधि सिधि ऐसी करो मेरे मन। ऐसें भै नाथजू की मूरति बसी रहे॥९॥

त्रिभंगी छंद

जे जे जगदम्बा हितनि करम्बा। अधिक अभूता नित नूता।
शिशुचंद ललाट है दुति ठाट। अधिपति भूता मजबूता।
वरदायक दासहि बुद्धि प्रकासहि देत विभूता अद्भूता।
भैरों भय हंता अति बलवंता शंकर पूता अवधूता॥१०॥

स्वामी कार्तिक के कवित्त

दादी करे प्यार पुन माता देत प्रान वार। अति सुकुमार रूप मारतें सरस है।
आठों सिद्धि नवों निद्धि दायक प्रसिद्ध जग। वृद्धि बुद्धिकार कसु भक्तन वश है।
ग्वाल कवि ताही को सपूत सब भाखत है। अधिक बड़ेनतें प्रताप सर बस है।
बाबा जू के चारमुख बापजू के पांच मुख। आप जूके षटमुख कुल के कलश है॥११॥