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अथ शिवादि देवतान की स्तुति

कवित्त

धारन विभूत के कियो है अवधूत रूप। देत है विभूत तिहु लोक असमान की।
दास अनदेखन के मुण्डन की माल जाल। बालशशि भाल सी सुरसरी शान की।
ग्वाल कवि प्रलयादि कर्म करैया मंजु। मुक्ति के दिवैया तन पंगत प्रमान की।
ऐसे शिवनाम की न लेन हारी जेती जीभ। सेती मानुषी न जात स्वान के समाज की॥१॥

कवित्त

सूत सनकादि शेष पुरहूत ध्यावे गावे। माने कंजभूत पूत जाकी गुन गाथ है।
कूत में न आबे दीन घालता अनूप ताकी। मलि के विभूत कों विभूत देत हाथ है
दूत भजे जामी जाके दास मजबूतन तें। ग्वाल कहे छूत सूत टूटत अकाथ है।
पूत है न काहू के अनादि है अभूत है त्यों। वरद अभूत भव्य भूत भूतनाथ है॥२॥

सवैया

अंग विभूत अकूत अभूतसु है अवधूत धुरंधर लेखे।
है हरि आसन दिव्य प्रकासन वासन हूँ हरि को अवरेखे।
यों कवि ग्वाल हिये हिर हार है मुण्डन झुण्डन हार विशेखे।
आनन पाँच क पाँच हू भाल पें, सांच में पाँच निशाकर देखे॥३॥

कवित्त

छोड़ि सब कामे कामे जनम बितावे मूढ़। राखिते कलामें नित नामे गुरग्यानी के।
रोचन से लाल लाल लोचन मसम माछे। भसम दिपत गरे गरल अमानी के।
ग्वाल कवि वृष के सवार अहि हार सदा। परम उदार औधि करुना निधानी के।
देव धुनि धारा बीच जटा के अपारा धूम| तारा पति सोहे शीश ईशवरदानी के॥४॥

कवित्त

वाह वाहें वाह वाहें रोझ भोलानाथ की कों। उच्चतासों बंजब कहे भै दरि देत है।
सेवन के थाल मोदकादिक रसाल और। मधुर विसाल फल लोक धरि देत है।
ग्वाल कवि तापेन खुसाल होत महाराज। लेके भंग प्याला सर्व सुख भरि देत है।
और तो कपोल कलषित कों न गीने पल। ये तो वाही ख्याल में निहाल करि देत है॥५॥