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२२ : भक्तभावन
 

इसलिए इनकी कोई निश्चित रचना तिथि का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। संभव है कि प्रथम बार ही स्वयं ग्वाल द्वारा 'भक्तभावन' में इनका संग्रह किया गया हो। अतएव इनका रचनाकल भी सं॰ १९१९ वि॰ के पूर्व मानना ही उपयुक्त होगा। इनमें नीतिकथन है। ऐसा अनुमान होता है कि ग्वालजी ने परम्परानुसार जीवन तथा समाज के खट्टे-मीठे कड़, अनुभवों को काव्यभाषा में लिपिबद्ध कर दिया है। इसमें मानवता, मित्रता, शत्रुता, प्रेम निर्वाह, कविकर्म, दुर्जन-सज्जन, मूर्ख, दरिद्रता , पण्डित, लम्पट, व्यभिचारी आदि पर कवित्त प्रस्तुत किये गये हैं। उदाहरण स्वरूप मूर्ख पर लिखा गया कवित्त देखिए :––

बैठने की उठबे की बोलिबे की चलिबे की,
जानत न एको चाल आइ जग ढांचे में।
देखत में मानुष की आकृति दिखाई परे,
पर नर पशु औ परन्द है न जाँचे में।
ग्वाल कवि जानि के विरंचि तुच्छ जंतुन को,
डार और ठौर लखि ख्याल ही के खाँचे में।
कूकरतें सूकरतें गर्दभ ते उलूकतें,
काढ़ि काढ़ि जीव डारे मानुष के सांचे में।

१५. दृशातक––यह काव्य की शतक परम्परा में लिखी गई रचना है। इसमें नेत्रों को आलम्बन बनाकर सुन्दर काव्यात्मक उक्तियां प्रस्तुत की गयी हैं। प्रारम्भ के दो दोहों में मंगलाचरण है। तीसरे दोहे में ग्रन्थ रचना का उल्लेख इस प्रकार किया गया है––

संवत निषि शशि निधि शशी, फागुन पख उजियार।
द्वितीया रवि आरम्भ किया, द्रगसत सुख को सार।

अतएव स्पष्ट है कि सं॰ १९१९ वि॰ में इसकी रचना हुई है। रचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण के बाद कविविषे तथा ग्रन्थ का परिचय दिया गया है। तत्पश्चात् शतक परम्परा में कवि ने आंख पर सौ दोहे प्रस्तुत किये हैं जिनमें कवि के काव्यकोशल के दर्शन होते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत है––

प्यारी तो तन ताल में फूले दृग अरविन्द,
चितवनि रस मकरन्द हित, मो मन भयो मलिन्द।

राधिका के तन रूपी सरोवर में दृगरूपी कमल खिले हुए हैं जिसके चितवन रूपी मकरन्द रस का पान करने के लिए मन रूपी भौंरा मुग्ध हो गया है। अर्थात् सांगरूपक के द्वारा कवि ने नेत्रों के आकर्षण का वर्णन किया है। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि ग्वाल के समकालीन लगभग सभी कवियों में मुक्तक रूप से नेत्रों पर अनेक छन्द लिखे हैं। किन्तु अपने युग में नेत्रों पर शतक लिखने वाले संभवतः वे अकेले ही कवि हैं।

१६. भक्ति और शान्त रस के फपित––इसके तीन छन्द रसिकानन्द में तथा तेरह छन्द रसरंग में संगृहीत हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इन छन्दों की रचना सं॰ १८७९ वि॰ के पूर्व हुई होगी।" कि शीर्षक से ज्ञात होता है कि ये भक्ति और शान्तरस