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भक्ति और शांत रस के कवित्त

कवित्त

काल की न खबर कहाँ सो होय मेरे मन। ख्याल को है काया यह पानी भरी खाल को।
पालकी में चढ़ि मत भूले मढि नालकी में। कढि करि तीरथ सुमति खुसहाल को।
भालकी जताये जिन मालन में ग्वाल कवि। करि सतसंग बेड़ि काटि भायजाल की।
बालको बिलोकन विसारि हालाहाल की तूं। छवि दीन दयाल की विलोक नंदलाल को॥१॥

कवित्त

तात मात बहिन सुप्ता औ सुत बनिता हू। भानजे भतीजे साथ चलि है न खेवामें।
हाथी हथियार हय गय ग्राम धाम घौर। भूखन वसन छुटि जेहे नेक ठेवामें।
ग्वाल कवि कीजें सतसंगत जो फूले अंग। राखि निज वृत्ति एक सांवरे को सेवामें।
कोक है न हित सब वित्त के लिवैया अरे। भूले मत चित्त नित काल के कलेवा में॥२॥

'कवित्त

काया जिन आपनी गिने तू मन मूंढ येरे। याके घने गाहक है तोष पोष भरिजा।
बात कहे मेरी बात कै तु कहे मेरी यह। नीर नीर जीव कहे मेरी मोहि भरिजा।
ग्वाल कवि ऐसें सब झगरो मचावे तहाँ। काल कहे मेरी यह काहू की न चरिजा।
यातें नंदनंदन कें नामकी बनाव नाव। संत जन केवट ले पार तूं उतरिजा॥३॥

कवित्त

चोवा मार चंदन कपूर चूर चारु ले ले। अत्तर गुलाब को लगाये तन धारी में।
खासा तनजेव के धसन वेश धारि धारि। भूषन संवारि कहा सोवे सेज पारी में।
ग्वाल कवि साधन के साधन लगेन मंद। बेठि मसलंद पे भुलायो दगा रारो में।
मेरी यह सेरो सो बँधी है मजबूत वैरी। मेरी मेरी कहत मिलेगो अंत माटी में॥४॥

कवित्त

पनहैन तेरो कोऊ तन है न तेरो इहाँ। प्रन है न तेरो बनि बैठ्यो गर्व भारी सों।
पितु है न तेरो कोऊ हितु है न तेरो तकि। चित्त है न तेरो बस्यो ही में जोरवारी सों।
ग्वाल कवि मेरो यह तेरो सो अंधेरो भयो। ताहि करि दूर बोध चंद उजियारी सों।
नग है न तेरे नरनग है न तेरे संग। नग है न तेरे पग क्यों न नग धारी सों॥५॥