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८४ : भक्तभावन
 


लबारी के लबारपन विषे

सिंघन के रोमन को जोर पाऊँ जुलिकार। उलिकरि और पाऊँ गंग की निकारी को।
पुंज परना नुन के ढोर पाऊँ जब तब। तोर पाऊँ फूल बोच बाग असुरारी को।
ग्वाल कवि सिंधु की हिलोर पाऊँ गिन गिन। फोर पाऊँ शृंगन सुमेर सुखकारी को।
तारन के तुंगन उत्तंगन बटोरि पाऊँ। पैन छोर पाऊँ काहू काहूकी लबारी को॥१८॥

झूठे मनुष्य विषे

द्वार पर झूठ पिछवारे पर झूठ झुक्यो। दोऊ ही किनारे पर झूठ उलहत है।
आंगन में झूठ और दलानन में झूठ भर्यो। कोठे माहि झूठ छत पर बहत है।
ग्वाल कवि कहत सलाहन में झूठे झूठ। सैनन में बैनन में झूठ ही कहत है।
हाथी भर झूठ जाके उर में बसत सदा। ऊँट भर झूठ जाकी मूंठ में रहत है॥१९॥

वचन फेर सरदार विषे

तरल तुरंग रंग रंग के मत्तंग संग। पालकी सुरंग सजेकार चोब कारी को।
भूषन वसन वेश कीमती विविध विधि। भोग करिबे को पास पांति बर नारी की।
ग्वाल कवि हाजिर हुकम सब भांति पूर। पर इतने पे परिजात धूर स्वारी की।
कौल करि बोल फेर बदलत तुतं तातें। तोल मौल घटे कठ पोल सरदारी की॥२०॥

काम परे मनुष्य की परीक्षा होत

देखे अंग अंग के न मालुम परत कछु। कारे गोरे रंगहुतें जाँचन हुलत है।
एक ही में सबही सफेद यो सहोसदार। बैठन औचन चितौन अतुलत है।
ग्वाल कवि क्योंहू गुन औगुन न जाने पर। ऐपे एक बात चतुरन में तुलत है।
दाम परे गौहर को एब गुन खुले जैसें। तेसें काम परे नर जौहर खुलत है॥२१॥

दुर्जन विषे

गंगा के न गौरि के गिरीश के न गोविन्द के। गोत के न जोत के न जाये राहगीर के।
काहू के न संगी रति रंगी भेन भानजी के। जीके अति खोटे सोटे खेहे जम भोर के।
ग्वाल कवि कहे देखो नारी को खसम जाने। धर्म कों पसम जाने पातकी शरीर के।
निमक हराम वद काम करें ताजे जाजें। बाजे वाजे बेटोचोद गुरु के न पीर के॥२२॥

कवि पालिबे विषे

वाज गजराज नाज चीतें फोज बकामदार। राखिबो सहज जातें राज उपचार होय।
भांड. बहुरूपिया सरूपिया न चैमन कों। कंचनी कलावत को आदर अपार होय।
ग्वाल कवि कविन को राखिबो सहज है न। हमे वही राखे जाके लेख रेखाचार होय।
गुन को विचार होय अति रिझवार होय। उदित उदार होय सुजस लिलार होय॥२३॥