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बहुत कम विचार हुआ है। बहुत बड़ी मात्रा में ऐसी सामग्री राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार के संग्रहों तथा नाभा पटियाला, और पंजाब की कुछ छोटी-बड़ी पुरानी रियासतों में वर्तमान है। यह सम्भव है कि उसके यथेष्ट अनुशीलन के उपरान्त हमें अपनी पूर्ववर्ती धारणाओं को बदलना पड़े। कवि ग्वाल की रचनाएं जिस कोटि की हैं, उस कोटि की तथा अनेक तो गुणवत्ता की दृष्टि से उससे कुछ ऊपर-नीचे की भूमियों की भी हैं। अतः मुझे विश्वास है कि ग्वाल के पश्चात् 'रीतिकाव्य की अटूट परम्परा का वैसा आलोक पुनः दिखाई नहीं देता'––विषयक लेखिका के निष्कर्षों में भविष्य में यत्किचित् परिवर्तन करना पड़ेगा। इस सम्भावना के लिए भी उसका द्वार खोलनेवाली डॉ. बाफना हमारे साधुवाद की अधिकारिणी ही कही जायेंगी क्योंकि उन्होंने इस अन्तिम कड़ी के एक पक्ष को पहले पहल साहित्य जगत् में प्रस्तुत किया है।

मुझे विश्वास है कि प्राचीन काव्य-सामग्री के सम्यक् अध्ययन की दिशा में लेखिका का यह प्रयास एक सुदृढ़ और सराहनीय पदन्यास सिद्ध होगा। आशा है सुधी विद्वज्जनों के बीच इस शोष-सामग्री का समुचित स्वागत होगा।

––मदन गोपाल गुप्त

२५-५-१९९१
भू॰ पू॰ प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
 

हिन्दी विभाग

महाराज सयाजीराव वि॰ वि॰, बड़ौदा