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षट्ऋतु वर्णन तथा अन्योक्ति वर्णन : ७३
 


कवित्

बोली तब बाल भलें आओ नंदलाल अब। देखे ख्याल तेरो भाँजि आयो फासि फासि कें।
सुनत गुपाल रंग अंगन में डाल डाल। कुकुम उताल खूब मारे कसि कसिकें।
ग्वाल कवि स्यामे गहि कोइक नचावे भले। कोइक छुडावें फेर आवें धसि पसि कें।
तानें ललिता में मूठि डाले राधिका पें आये। चढ़ि चौंतरा देत तारा हँसि हँसि कें॥८५॥

सवैया

जा दिन ते जनमें तु स्यामजू तादिन तें तुमको यही भावे।
दूध दही मही चाखन चोरी औरु चुराय के बात बनावे।
त्यों कवि ग्वाल गुलाल चुराइ के आँख चुराय के आँख में नावे।
साहस तेरो तके जब लाल जो सामने बोलिके मूठि चलावे॥८६॥

कवित्त

हूजे सावधान अब सामने ही ऐहे हम। कहिके इतेक अब बेलिन में पिल गयो।
गहर गुलाल औ अबीरन की मूठई दे। धुंधकरि दीनि मनो भान आज गिल गयो।
ग्वाल कवि वाही धूम धाम में छबोलो छैल। ढूंढिलोनी छिन में छबीली जामें दिल गयो।
हिल गयो हेत मंत्र किल गयो मोहन को। खिल गयो खेल खेल ही में मिल गयो॥८७॥

कवित्त

आइ केरी राधिका जमाइ के जुवति जूथ। फगुवा मचाइ केख दी हो छबि छाइ के।
जाइके तहाँई पेहूँ फास्यो वे उपाइ केरी। घाघरो पिन्हाइ के लयोरि में नचाइके।
गाईकैं कवि ग्वाल लाई के गुलाल लाल। हँसत हँसाइ के में कुच गहे धाइके।
नेनन लजाइ कॅसु नैनन रिसाइ कैजु। सैनन चलाइ के गइ हमें बुलाइ के॥८८॥

कवित्त

कह्यो नंदगाम ते नवल नंद नंद आज। फागुन समाजन के साज सब सजिकें।
गैल गैल ग्वालिन को ऐलसी मची ही तहाँ। छैल बके ऐल फेल वेऊ हँसे लजिकै।
ग्वाल कवि केतिन के कुच पिचकारि मारि। मुख मुरकाय कर्यो ख्याल एक वजिकें।
एक को सु आँखिन में भरिके गुलाल लाल। बाल दूजी के कपोल चूमि चले भजिकें॥८९॥

कवित्त

फागुन को फैलके गवेल ओ उफैल लै लै। वंसीको वजेल छैलकीनी धन घोरी है।
लेकें पिचकारी एक नारी को चलाह चार। वाने पिचकारी गहि ऐची निज ओरी है।
ग्वाल कवि लाल तब ख्याल को हिलाये हाथ। परीसी परी में जीरि आपहू परोरी है।
हँसि उठो गोरी डारे रोरी भरि झोरि जोरी। जोर जुरी आज कहे सांची यह होरी है॥९०॥