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७२ : भक्तभावन
 


कवित्त

आली ललितादि लैकैं चाली वृषभान सुता। फाग की बहाली लाली जोबन न साकी सब।
तास बादलेन के झलाके झला झलकत। चंद को कला की चंचला की छवि थाकी तब।
ग्वाल कवि आई नंदगाम की डगर पर। जगर मगर जोति जागि है मजा की जब।
फैल को वकैया आगें मिलिगौ छबीलो छैल। गैल रोकि रोकि कहे सैल करो यहाँ की अब॥७९॥

कवित्त

कौन से गरीब कौ तूं बालक है बिगरेल। गैल रोकि लोनी पर पाछें पछताइहै।
गैयां नवलाख बाबा नंद की सुनी कि नाहिं। ताको में कन्हैया कहा हमकों बताइहै।
ग्वाल कवि जो तूं लडाइतो है नंदजू को। तोपें का लडेती वृमभान की भिजाइहै।
या तो इत बावती न बाई तो बबा की सोंह। खेले बिनहोरी अब केसें जान पाइहै॥८०॥

कवित्त

जानी हमजानी तोहि बांधिकै नचायो हुतो। पाइपरि आयो बचि सूधोहोत सीव को।
गैया नव लाखकी सुनायत जो ताले बरी। ऐसे किते इनके जिवाक्त है जीव को।
ग्वाल कवि जोपें फाग खेल्यो ही चहत अब। तोपे खेलि हमसों ये साथ की परीन को।
खेल में बराबरी को दावो होत आयो सदा। बेटी यह भूपकी तू बालक गरीब को॥८१॥

कवित्त

तालेवरी रावरी न छीन हम लैहे कछू। लागि[१] है न उडिकें गरीबी तुम्हें खोरी सों।
राजन सों खेले रंक रंकन सों खेले राजा। ह्वै करि निशंक भरे अंक सदा बोरी सों।
ग्वाल कवि केती कला खेलो पेन मानो एक। जानो घर कठिन परेगो या मरोरी सों।
चोरी सों कि जोरी सों कि तोरी मोह होरी माज। खेलेंगे जरूर हम गोरी सों किशोरी सों॥८२॥

कवित्त

नंद जसुदा के सुने सूधे ही सुभाय सब। स्याम तुम मीले कहा बॉकपन जारियां।
खेलवो हू सबतें बबूल करि लोनो लला। तोमें तो पिछौरा पुसाखी दूत भारियाँ।
ग्वाल कवि जब घर जैहे का बने है बात। कैसेकें छिपे है जो लगेगी पिचकारियाँ।
रेलिये रंग औ न खेलिये दगा को खेल। मेलिये गुलाल सूधे दीजिये[२] न गालियाँ॥८३॥

कवित्त

चाहो करि आओ जरि तामके लिबास तुम। चाहों सादे धारो रंग डारिहै पें डारिहै।
चाहो जाइ कंस पें पुकारो या पुकारो मत। फागुन की गाग्नि तें गारिहै पें गारिहै।
ग्वाल कवि जी में भल मानो या न मानो कछू। है न बरसानो आँगी फारिहै पें फारिहै।
घूँघट झरोखे झुकि झाकि हों अनोखे चोखे। तोपें हम धोखें मूठी मारिहैं पैं मारिहै॥८४॥


  1. मूलपाठ––लागी
  2. दिजीये