पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/८९

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प्रथम अध्याय भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ जिस समय भगवान बुद्ध का लोक में जन्म हुअा, उस स्पय देश में अनेक वाद प्रचलित थे। विचार-जगत् में उथल-पुथल हो रहा था। लोगों की जिज्ञासा जग उठी थी। परलोक है या नहीं, या के अनन्तर जीव का अस्तित्व होता है या नहीं, कर्म है या नहीं, कर्म-विपाक है या नहीं, इस प्रकार के अनेक प्रश्नों में लोगों का कुतूहल था। इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए लोग उत्सुक थे। ब्राह्मण और श्रमण दोनों में ही विचार-चर्चा होती थी। श्रमगा अवै- दिक थे। ये वेद का प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते थे। ये यज्ञ-यागादि क्रिया-कलाप को महत्त्व नहीं देते थे । इनकी दृष्टि में या तो इनका क्षुद्र फल है या ये निरर्थक और निष्प्रयोजनीय है। श्रमण आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के थे। इनके कई सम्प्रदाय तपस्या को विशेष महत्त्व देते थे। जो श्रास्तिक थे, वे भी जगत् का कोई सष्टा, कर्ता नहीं मानते थे । 'पालि निकाय' में जिन श्रमणों का उल्लेख है, उनमें प्रायः नास्तिक ही हैं । ब्राह्मण और श्रमण --ये दो संस्कृति- परम्पराएँ, प्राचीन काल से चली आती हैं। ये एक दूसरे में प्रभावित हुए हैं। इनमें नैसर्गिक वैर था। ब्राह्मण मुण्डदर्शन को अशुभ मानते थे। ब्राह्मण सांसारिक थे। श्रमण अनागारिक होते थे और ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । ये सत्यान्वेषण के लिए किसी शास्ता के अधीन होते थे, उसके गण या संघ में प्रवेश करते थे। ब्राह्मण वैदिकधर्म के अनुसार मन्त्र, जा, दान, होम, मंगल, प्रायश्चित्तादि अनुष्ठान का विधान करते थे । धर्म का यह रूप बाह्य था। स्वर्ग की कामना से या अन्य लौकिक भोग की कामना से ये विविध अनुष्ठान होते थे। यज्ञों में पशुवध भी होता था । कर्मकाण्ड का प्राधान्य था । ब्राह्मण-धर्म आस्तिक था । ब्राह्मण सुकृत, दुष्कृत के फलविपाक में विश्वास करते थे। इनमें सत्य, अहिंसा, अस्तेय आदि के लिए पक्षपात था। किन्तु वैदिकी हिंसा हिंसा नहीं समझी की थी। यह निस्पृह और सरल हृदय के होते ये और इनको विद्या का व्यसन था। इसलिए. ममाज में इनका आदर था। धीरे-धीरे उनका प्राधान्य हो गया, क्योंकि वेद-विहित अनुष्ठानों की विधि इन्हीं को मालूम थी। पुरोहित संकीर्ण हृदय और स्वार्थी होने लगे और वे अपनेको सबसे ऊँना समझने लगे । ब्राह्मण-काल में पुरोहित मानुषी देवता हो गये। इस काल में वेद को शन्द-प्रमाण मानते थे। वर्णाश्रमधर्म की व्यवस्था इसी काल में प्रौढ़ हुई । तपस्या का भी माहात्म्य समझा जाता था, क्योंकि उनका