पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७६

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कर सकते हैं । इसके बाद श्री विपिनचन्द्र पाल आए और उनके ४ ओजस्वी व्याख्यान हुए । इस तरह समय समय पर किसी न किसी दल के नेता प्रयाग नाते रहते थे | लाला लाजपतराय और हैदररबा भी पाए । नरम दल के नेताओं में केवल श्री गोखले का कुछ प्रमाव हम विद्या- थियों पर पड़ा। हम लोगों ने स्वदेशी का व्रत लिया और गरम दल के अखबार मगाने लगे । कलकत्ते से दैनिक 'वन्दे मातरम्' पाता था, जिसे हम बड़े चाव से पढ़ा करते थे । इसके लेख बड़े प्रभावशाली होते थे। श्री अरविन्द घोष इसमें प्रायः लिखा करते थे। उनके लेखों ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया । शायद ही उनका कोई लेख होगा जो मैंने न पढ़ा हो और जिसे दूसरों को न पढ़ाया हो । पाण्डिचेरी जाने के बाद भी उनका प्रभाव कायम रहा और मैं 'आर्य' का वर्षों ग्राहक रहा । बहुत दिनों तक यह श्राशा थी कि वह साधना पूर्ण करके बंगाल लौटेंगे और राजनीति में पुन: प्रवेश करेंगे। सन् १९२१ में उनसे ऐसी प्रार्थना भी की गयी थी, किन्तु उन्होंने श्रपने भाई वीरेन्द्र को लिखा कि सन् १६०८ के अरविंद को बंगाल चाहता है, किन्तु मैं सन् १६०८ का अरविंद नहीं रहा। यदि मेरे दंग के ६E भी कभी तैयार हो जाये तो मैं श्रा सकता हूँ। बहुत दिनों तक मुझे यह श्राशा बनी रही, किन्तु अन्त में बब मैं निराश हो गया तो उधर से मुंह मोड़ लिया। उनके विचारों में श्रोज के साथ-साथ सचाई थी। प्राचीन संस्कृति के भक्त होने के कारण भी उनके लेख मुझे विशेष रूप से पसन्द पाते थे | उनका जीवन बड़ा सादा था। जिन्होंने अपनी पत्नी को लिखे उनके पत्र पढ़े हैं, वे इसको जानते हैं। उनके सादे जीवन ने मुझको बहुत प्रभावित किया । उस समय लाला हरदयाल अपनी छात्रवृत्ति को छोड़कर विलायत से लौट आये थे । उन्होंने सरकारी विद्यालयों में दी जानेवाली शिक्षा प्रणाली का विरोध किया था और 'हमारी शिक्षा-समस्या' पर १४ लेख पंचाबी में लिखे | उनके प्रभाव में लाकर पंजाब के कुछ विद्यार्थियों ने पढ़ना छोड़ दिया था। उनके पढ़ाने का भार उन्होंने स्वयं लिया था। ऐसे विद्यार्थियों की संख्या बहुत थोड़ो थी। हरदयालजी बड़े प्रतिभाशाली थे और उनका विचार था कि कोई बड़ा काम बिना कठोर साधना के नहीं होता। एडविन् पारनोल्ड की 'लाइट श्राफ एशिया' को पढ़कर यह बिलकुल बदल गए थे। विलायत में श्री श्यामबी कृष्ण वर्मा का उन पर प्रमाव पड़ा था। उन्होंने विद्यार्थियों के लिए दो पाठ्यक्रम तैयार किए थे | इन सूचियों की पुस्तकों को पढ़ना मैंने प्रारम्भ किया। उग्र विचार के विद्यार्थी उस समय रूस-जापान युद्ध, गैरीबाल्डी और मैजनी पर पुस्तके और रूस के अातंकवादियों के उपन्यास पढ़ा करते थे। सन् १६०७ में प्रयाग से रामानन्द बाबू का 'माडर्न रिव्यू भी निकलने लगा। इसका बड़ा श्रादर था। उस समय हम लोग प्रत्येक बंगाली नवयुवक को क्रान्तिकारी समझते थे। बंगला-साहित्य में इस कारण और भी रुचि उत्पन्न हो गयी। मैंने रमेशचन्द्रदत्त और बंकिम के उपन्यास पढ़े और बंगला-साहित्य थोड़ा बहुत समझने लगा । स्वदेशी के व्रत में हम पूरे उतरे। उस समय हम कोई भी विरोधी बस्तु नहीं खरीदते थे। माघ मेला के अवसर पर हम स्वदेशी पर व्याख्यान भी दिया करते ये । उस समय म्योर कालेज के प्रिसिपल केनिम्स साहब थे। वह कट्टर एंग्लो-हरिहयन थे। हमारे छात्रावास में एक विद्यार्थों के कमरे में खुदीराम बसु की तसवीर थी। किसी ने प्रिंसिपल