पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७०१

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विश अध्याय इनकी प्रवृत्ति के विषय मी भिन्न हैं। वस्तु और अवस्तु में परस्पर परिहार से विरोध होता है, फिन्तु सहानवस्थान-विरोध कतिपय वस्तु में ही होता है। इसलिए इनके मिन्न व्यापार और भिन्न विषय है। इनका अन्योन्यान्तर भाव नहीं है । वक्तुत्व और सर्वशत्व के बीच दो में से कोई विरोध भी संभव नहीं है। यह नहीं कहा बा सकता कि वक्तृत्व के होने से सर्वशत्व का अभाव होता है। सर्वज्ञत्व अदृश्य है और अदृष्ट के अभाव का अभ्यवसाय नहीं होता। इस कारण से ही इसके साथ विरोध नहीं है । यहां दूसरे प्रकार का विरोध भी नहीं है, क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि सर्वशत्व वक्तृत्व परिहार से होता है। इस अवस्था में काष्ठादि भी सर्वज्ञ होंगे क्योंकि उनमें वक्तृत्व नहीं है। और सर्वशत्व के परिहार से भी वक्तृत्व नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा होता तो काठ में भी वक्तृत्व का प्रसंग होगा। अतः किसी विरोध के न होने से वक्तृत्व के विधान में हम सर्ववत्व का निषेप नहीं कर सकते। ऐसा हो तो हो ! किन्तु यदि सर्वशत्व और वक्तृत्व में कोई भी विरोध न होता तो घट-पट के समान उनकी सहावस्थिति दिखलाई पड़ती। क्या सहावस्थिति के प्रदर्शन से विरोध- गति नहीं होती और इस विरोध से श्रभावगति नहीं होती। इस अाशंका का यों निराकरण करते हैं। यद्यपि वका में सर्वशव की उपलब्धि न हो तथापि वक्तृत्व के भाव को सर्वशत्व की विरुद्ध-विधि नहीं कह सकते । यद्यपि दोनों के सहावस्थान का अनुपलम्भ है, तथापि इन दोनों का विरोध नहीं है, क्योंकि सहानुपलम्भमात्र से विरोध सिद्ध नहीं होता । इसके विपरीत अध्यवसाय से सिद्ध होता है कि दो उपलम्ममान में निवर्त्यनिवर्तकभाव होता है। अतः यद्यपि सर्वशत्व और वक्तृत्व के सहावस्थान का अनुपलम्भ है, तथापि वक्तृत्व का सद्भाव यह सिद्ध नहीं करता कि सर्वशत्ल विरुद्ध की विधि (सत्व) है। अत: पूर्व के सद्भाव का अर्थ अपर का प्रभाव नहीं है। इसी प्रकार वक्तृत्व रागादिमत्व का गमक नहीं है, क्योंकि यदि वक्तृत्व रागादि का कार्य होता तो वक्तृत्व की रागादि गति होती और रागादि की निवृत्ति होने पर वचनादि की निचि होती। किन्तु वक्तृत्व कार्य नहीं है, क्योंकि रागादि और वचनादि का कार्यकारणभाव प्रसिद्ध है। अतः वक्तृत्व विधि से रागादि गति नहीं होती। योड़ी देर के लिए हम मान लें कि वचन रागादि का कार्य नहीं है, तथापि इन दोनों का सहावस्थान तो हो सकता है । तब रागादि की निवृत्ति होने पर वचन भी निवृत्त हो सकता है। इस अाशंका का हमारा यह उत्तर है..जो अर्थान्तर वचन का कारण नहीं है, यदि उसकी निवृत्ति होती है, तो सहचारिख से ही बचनादि की निवृत्ति नहीं होती। अतः वक्तृत्व के साथ रागादि भी हो सकता है। अतः वक्तृत्व संदिग्ध न्यतिरेक है, क्योंकि विपर्यय में उसका प्रभाव संदिग्ध है। सर्वचस्व असर्वशत्व का विपर्यय है और अरागादिमत्व रागादिमत्व का विपर्यय है।