पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७००

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बीब-गर्म-दर्शन का परिहार करें तादाम्य-अमाव ( श्रनील ) का अवच्छेद होता है। यदि इसका अवच्छेद न होता तो नील के अपरिच्छेद का (अशान ) प्रसंग होता । इसलिए वस्तु का भाव और प्रभाव परस्पर परिहार के रूप में स्थित है। बो नील से अन्य रूप है, वह नीलाभाव में अवश्य अन्तभूत है । जब इम पीतादि की उपलब्धि करते हैं, तब नील का अनुपलम्भ होता है और उसके प्रभाव का निश्चय होता है, क्योंकि जैसे नील अपने प्रभाव का परिहार करता है, उसी तरह पीतादिक मी अपने अमाव का परिहार करते हैं। श्रतः भावाभाव का (नील और अनील का ) साक्षात् विरोध है और दो बस्तयों का ( नील और पीत का) विरोध है, क्योंकि वे अन्योन्य प्रभाव को अन्तर्भूत करने में व्यभिचार नहीं करते। किन्तु वह क्या है जिसे हम अन्यत्र प्रभाव मानते हैं ? यह उसका नियताकार अर्थ है । यह अनियताकार अर्थ नहीं है, यथा क्षणिकत्व । क्योंकि सभी नीलादि का स्वरूप क्षणिकत्व है, इसलिए नियताकार नहीं है । यदि हम चणिकत्व कुछ भी नहीं दिखाई देगा। यदि ऐसा है तो अभाव भी नियताकार नहीं है। क्यों ? यह अनियताकार क्यों हो? क्योंकि इस अभाव का वस्तुरूप कल्पित विविक्ताकार है, इसलिए यह अनियताकार नहीं है। इसलिए बब हम अन्यत्र किसी वस्तु के अभाव को उपलब्ध करते है तो हम उसे अनियताकार में नहीं किन्तु नियत रूप में, चाहे वह दृष्ट हो या कल्पित, उपलब्ध करते हैं। इसलिए जब हम नित्यत्व का निषेध करते हैं, अथवा जब हम पिशाचादि की उपलब्धि का प्रत्याख्यान करते हैं, तो हमको जानना चाहिये कि इनको नियताकार होना चाहिये । यह विरोध एकात्मकत्व का विरोध है। जिन दो का परस्पर परिहार है उनका एकत्व नहीं होता | इस विरोध को इसीलिए 'लाक्षणिक विरोध' कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि इस विरोध से वस्तुतत्व का विभकत्व व्यवस्थापित होता है। अतएव यदि किसी दृश्यमान रूप में हम किसी दूसरे का निषेध करते हैं, तो हम उस दृश्य का अभ्युपगम करके ही उसका निषेध करते हैं। जब पांत में हम उसके अभाव का निषेध करते है, अथवा यह पिशाच है इसका निषेध करत है, तब हम दृश्यात्मतया ही निषेध करते हैं। यदि ऐसा है तब रूप के शात होने पर उसके प्रभाव का दृश्यात्मतया व्यवच्छेद होता है। जो उसके अभाव के तुल्य नियताकार रूप है, वह दृश्य भी व्यवच्छिन होता है। जब नील की उपलब्धि के साथ-साथ पीत का निषेध होता है, तो क्या इस अभूत पीत में भी अपीत का निषेध अन्तभूत है । हाँ ! उसके प्रभाव के सुल्य जो नियताकार रूप है, वह भी श्यात्मतया व्यवच्छिन होता है। अतः बो रूप परस्पर परिहारेण स्थित है, वह सब अन्त- भूत सब निषेषों के साथ व्यवछिन्न हैं। इस विरोध में सहावस्थान हो सकता है। अतः इन दो विरोधों के भिन्न व्यापार है। एक से शीतोष्ण स्पर्श के एकत्व का निवारण होता है, दूसरे से उनका सहावस्थान होता है।