पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६९३

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व्याख्यान होना चाहिये। स्वार्थानुमान में लिंग के स्वरूप का व्याख्यान हो चुका है । अब प्रतिपादक शन्द का व्याख्यान करना है। अब हम परार्थानुमान के प्रकार-भेद दिखायेंगे। यह दो प्रकार का है । प्रयोग के भेद से यह विविध है । प्रयोग-भेद शब्द के अर्थाभिधान-भेद से होता है-साधर्म्यवत् , वैधयंवत् । दृष्टान्तधर्मी के साथ साध्यधर्मों का हेतुकृत सादृश्य साधर्म्य कहलाता है। हेतुकृत असादृश्य खाधम्र्य यथा जो कृतक ( =संस्कृत = संस्कार ) है, वह अनित्य है; जैसे घटादि। पक्षधर्मस्व -शब्द ऐसे ही कृतक है। साध्य-वह अनित्य है। वैथर्प-जो नित्य है वह अकृतक है, यथा अाकाश | किन्तु शन्द कृतक है। वह अनित्य है। यदि इन दोनों प्रयोगों का अर्थ भिन्न है, तो त्रिरूप लिंग अभिन्न क्यो है। प्रयोजन की दृष्टि से इन दोनों अर्थों में भेद नहीं है। दोनों से विरूप लिंग प्रकाशित होता है। केवल प्रयोग का भेद है। अभिधेय की अपेक्षा कर वचन-भेद है, प्रकाश्य अभिन्न है । यथा, पीन देवदत्त दिन में नहीं खाता । पीन देवदत्त रात्रि में खाता है । इन दो वाक्यों में अमिधेय-भेद होते हुए भी गम्यमान वस्तु एक ही है । अब हम साधर्म्यवत् अनुमान के उदाहरण देते हैं। भनुपधि म साधम्र्यवान् प्रयोग (अन्वय ) जहाँ कहीं उपलब्धिलक्षण प्राप्त दृश्य की उपलब्धि नहीं होती, वहां हम उसके लिए असत् का व्यवहार करते हैं। (दृष्टान्त ) यथा जब शशविषाणादि को जिस दृश्य के लिए, हम असत् व्यवहार करते ६, हम चतुका विषय नहीं करते। ( पक्षधर्मत्व ) एक प्रदेशविशेष में हम दृश्य घट की उपलब्धि नहीं करते। (साध्य) अतः हम उसे असद् व्यवहार योग्य कहते हैं। स्वभाव का साधर्मवान् प्रयोग (अन्वय) जो सत् है वह अनित्य है। (दृष्टान्त ) यथा घटादि। (पक्षधर्मस्व ) शब्द सत् है। (साध्य) यह चणसन्तान है।