पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६६४

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बौद्ध-धर्म-दर्शन है। जिस प्रकार महामुद्र में कोई कमी नहीं होती, चाहे जल के १००,००० घड़े उससे कोई निकाले और कोई पछि नहीं होती, चाहे १००,००० घड़े उसमें कोई डाले।" इस दृष्टान्त का क्या अर्थ है ! अनन्त में कोई भी मित संख्या का योग हो, या उससे कोई भी मित संख्या निकाली जाय, तो परिणाम सदा अनन्त निकलेगा। किन्तु सत्य तो यह है कि कोई महा-समुद्र अनन्त नहीं है। हम केवल उसके जल-कणों को गिन नहीं सकते। जैसे गंगा की बालुका के कणों का गिनना संभव नहीं है, यद्यपि उनकी संख्या मित है । अतः वस्तुतः वसुमित्र इसका प्रत्याख्यान नहीं करते कि भूत धमों की वृद्धि होती है, और भविष्यत् धमों का ह्रास होता है। उनका नाशय इतना ही है कि भविष्यत् और भूत की विपुलता को देखते हुए यह कहना कि धर्मों की वृद्धि या हानि होती है, व्यवहार में कोई महत्व नहीं रखता। इस दृष्टि का उद्देश्य अनुमित हो सकता है। कदाचित् इच्छा यह थी कि पुराने बौद्ध विचार को सुरक्षित रखा जाय कि भविष्यत् भूत में पवित्र होता है, और साथ ही साथ वह इस परिणाम से भी बचना चाहते थे कि सकल विश्व स्वत: निरोध के लिए, प्रयत्नशील है। यह विचार महायान और कदाचित् पूर्व बौद्ध-धर्म का था। किन्तु हीनयानियों को यह स्वीकार न था, क्योंकि इसके मानने से निर्वाण के लिए व्यक्ति का प्रयत्न निरर्थक हो जाता, कम से कम उसका महत्व घट जाता। अब हम संघभद्र के न्यायानुसारशास्त्र (पृ. १३६ ए १४ ) से एक उद्धरण देते हैं। जिसमें एक विरोधी का विवाद दिया है, जो त्रैकाल्यवाद को नहीं मानता । भूत और भविष्यत् वखतः धर्म नहीं है, क्योंकि यदि उनका अस्तित्व होता तो वह परस्पर प्रतिघात करते । वस्तुतः रूपी धर्म को देशस्य होना चाहिये। यदि वह धर्म बो विनष्ट हो चुके हैं, और जो अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं। वस्तुतः होते तो वे श्राघात-प्रविघात करते । सब रूप धर्मों में जिनका अस्तित्व है, अप्रतिघत्व होता है, और जिसमें यह नहीं है; वह रूप नहीं है। इस युक्ति में यह मान लिया गया है कि भूत और भविष्यत् दो सान्त माण्ड हैं। इनका परिहार शास्त्र में इस प्रकार किया गया है कि अप्रतियत्व केवल वर्तमान रूप धर्मों का होता है । महाविभाषा में (पृ.३६५ ५) प्रश्न है: यदि एक धर्म रूप है,तो क्या वह देशस्थ है ? उत्तर:-यदि धर्म देशस्थ है, तो वह अवश्य रूप है । ऐसे भी धर्म है, जो रूपी हैं। और देशस्थ नहीं हैं, अर्थात् भूत और भविष्यत् धर्म, वर्तमान परमाणु और अविचप्ति)। अतः यही वर्तमान रूप धर्म देशस्य हैं, और भूत तथा भविष्यत् धर्म देशस्थ नहीं है। यह उस पुराने सिद्धान्त का परिष्कृत रूप है, जिसके अनुसार भविष्यत् वर्तमान और भूत पों के मेद का कारण त्रिकाल में से एक अवस्या-भेद था। विती माविकम-अब हम वैभाषिक नय को लेंगे। पहले हम उन परिवर्तनों का आलेख करेंगे, चिनका सैव-धर्म में प्रवेश हीनयानयादी अभिधर्म के द्वारा हुमा ।