पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४९

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ऊनविंशमयाब २६१ और लक्षण का श्राश्रयण करके लक्ष्य । अनित्यता के लिए भावों की अपेक्षा आवश्यक है। कन्या-पुत्र श्रादि किसी का उपादान करके नहीं है, इसीलिए वह अभाव भी नहीं है क्योंकि भाव का अन्यथाभाव अभाव है । वन्ध्या-पुत्रादि तुच्छ हैं। सम्मान भादो नामावो मिणमिति पुज्यते-निर्वाण भाव और अभाव दोनों नहीं हैं। भगवान ने भव-तृष्या और विभव-तृष्णा दोनों के प्रहाण के लिए कहा है । निर्वाण यदि भाव या अभाव है तो वह भी प्रहातव्य होता। यदि निर्वाण माव और प्रभाव दोनों है, तो संस्कारों का प्रात्म-लाभ और उनका नाश दोनों ही निर्वाण होते । किन्तु संस्कारों को मोक्ष कोई स्वीकार नहीं करता । सिदान्त-संमत निर्वाण-~-इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जन्म-मरण-परंपरा हेतु-प्रत्यय- सामग्री का श्राश्रयण करके चलती है । जैसे--प्रदीप-प्रभा या बीजांकुर। अतः निवाण एक ऐसी श्रप्रवृत्ति है, जो जन्म-मरण-परम्परा के प्रबन्ध का उपादान नहीं करती । वह अप्रवृत्तिमात्र है, उसे श्राप भाव या अभाव नहीं कह सकते । जिसके मत में संस्कारों का संसरण होता है, उसके मत में भी अल्पाद और निरोध अपेक्षाक्श सिद्ध होते हैं, किन्तु निर्वाण अपेक्षा न करके (श्रप्रतीत्य) अप्रवर्तमान होता है। जिसके मत में पुद्गल का संसरण अभिप्रेत है, और पुद्गल नित्यत्वेन अनित्यत्वेन अवाच्य है। उसके मत में भी जन्म-मरण-परंपरा उपादानों की अपेक्षा करके होती है, और निर्वाण उपादान न कर अप्रवृत्तिमात्र है। इस प्रकार संस्कारों का संसरण माने या पुद्गल का, निर्वाण भाव या अभाव या उभय नहीं है। एक प्रश्न है कि निर्वाण भाव, श्रमाव या उभय रूप नहीं है, इसका किसने प्रत्यह किया है ? क्या निर्वाण में कोई प्रतिपत्ता है ? यदि है तो निर्वाण में भी आत्मा होगा, किन्तु निरुपादान श्रात्मा उस समय रहेगा कैसे ? यदि कोई प्रतिपत्ता नहीं है तो उपयुक्त सिद्धान्त का निश्चय किसने किया ? यदि संसारावस्थित ने किया तो उसने विज्ञान से निश्चय किया या शान से १ विज्ञान से संभव नहीं है, क्योंकि विज्ञान निमित्त का श्रालंबन करता है, किन्तु निर्वाण में कोई निमित्त नहीं है । शान से भी ज्ञात नहीं होगा, क्योंकि ज्ञान शन्यता का प्रालंबी है, और शून्यता अनुत्पाद रूप है। ऐसी अवस्था में ज्ञान अविद्यमान एवं सर्वप्रपंचातीत हुआ, उससे निर्वाण के भावाभाव का निश्चय कैसे होगा १ इसलिए माध्यमिक-सिद्धान्त में निर्वाण किसी से प्रकाश्यमान, और ग्रहमाण नहीं है। निर्वाचसे संसारका समेत निर्वाण के समान निर्वाण के श्नधिगन्ता तथागत में भी उक्त चार कल्पनाएँ (निरोध के पूर्व तथागत है, या नहीं, उभय या नोभय ) नहीं की जा सकती । तथागत की स्थिति में या निर्वाण में उनकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। अतः विचार करने पर संसार और निर्वाण में मेव सिब नहीं होता । संसार निर्वाण के अभेद से ही संसार की अनादि-अनन्तता भी उपपन्न होती है। प्राचार्य कहते है कि निर्वाण की कोटि (सीमा) और संसार की कोटि के मध्य किसी प्रकार का कोई सूक्ष्म भी भेद नहीं है।