पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४७

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ऊनविंश अध्याय निर्वाण अब शन्यवाद की दृष्टि से निर्वाण के स्वरूप का विवेचन किया जाता है । इस संबन्ध में पहले पूर्वपक्षी बौद्धों का मत दिया जाता है, पश्चात् शत्यवाद का । निवि की कल्प-निवृविता निर्वाण द्विविध है--सोपधिशेष, निरुपधिशेष । सोपविशेष-इस निर्वाण में अविद्या, राग आदि क्लेशों का निरवशेष प्रहाण होता है। आत्म-स्नेह जिसमें आहित होता है, वह उपधि है । उपधि शब्द से पंच उपादान स्कन्ध अभिप्रेत है। क्योंकि वह आत्म-प्राप्ति का निमित्त है। उपधिशेष एक है । इस उपधिशेष के साथ नो निर्वाण है, वह सोपधिशेष निर्वाण है। यह स्कन्धमात्र है, जो सत्कायहष्टि आदि क्लेशों से रहित है। निरूपविशेष-जिस निर्वाण में स्कन्ध भी न हो, उसे निरुपधिशेष निर्वाण कहते हैं। वादी कहता है कि उपयुक्त द्विविध निर्वाण शत्यवाद में संभव नहीं है। क्योंकि शून्यवाद में जब किसी का उत्पाद या निरोध नहीं होता तथा क्लेश और स्कन्ध नहीं होते तो, किस का निरोध करने से निर्माण होगा। अतः निर्वाण की सिद्धि के लिए भावों का सस्व- भाव होना श्रावश्यक है। प्राचार्य नागार्जुन कहते हैं कि स्कन्धों को सस्वभाव मानने पर उनका उदय-व्यय नहीं होगा, क्योंकि स्वभाव अविनाशी होता है, अतः सन्धों के निवृत्ति होने का प्रश्न नहीं उठेगा, फिर निर्वाण कैसा १ वस्तुतः स्कन्धों का निवृत्ति-लक्षण निर्वाण अयुक्त है। निर्वाण की कल्पना-क्षयता प्रमाणम्-जो रागादि के समान प्रहीरण नहीं होता। मसंपातम्-जो श्रामण्य फल के समान प्राप्त नहीं होता। अनुचिम्नम-जो स्कन्धादि के समान उच्छिन्न नहीं होता। प्रसारवतम्-जो अशन्य ( सस्वभाव ) पदार्थों के समान नित्य नहीं होता। अमिल्दा अनुपम्-जो स्वभावतः अनिरुद्ध और अनुत्पन्न हो । इन लक्षणों से लक्षित निर्वाण है । ऐसी निष्प्रपञ्चता में क्लेशों की कल्पना करना तथा उनके प्रहाण से निर्वाण कहना--ये सब असिब हैं । निर्वाण के पहले भी क्लेश नहीं ६, जिनके परिक्षय से निर्वाण सिद्ध होगा, क्योंकि स्वभावतः विद्यमान का परिक्षय नहीं हो सकेगा। अतः निरवशेष कल्पनाओं का क्षय ही निर्वाण है। यही सिमान्त-संमत निर्वाण का लक्षण है।