पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६३७

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ऊनविंशमध्याय श्राचार्य इस संबन्ध में और भी गंभीर विचार करते हैं। कहते हैं कि वादी यदि हेतु- फल के उत्पाद-विनाश-संतान को स्वीकार कर शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के दोषों से अपने को किसी प्रकार बचा ले, फिर भी जहां इस सन्तान की प्रवृत्ति सदा के लिए, समाप्त हो जाती है उस निर्माण में उच्छेद-दर्शन निश्चित है। वादी ने हेतु-फल के उत्पाद-विनाश के सन्तान को भव कहा है। चरम भव निवृत्ति- रूप है, और प्रथम प्रतिसन्धि-( मृत्यु और उत्पत्तिके बीच का क्षण ) रूप है । चरम भव निरुद्ध होकर हेतु-रूपेण अवस्थित होता है, प्रथम भत्र उपपत्ति-रूप होने से फल-रूप में व्यवस्थित होता है। इन्हीं दो के बीच संसार है। श्राचार्य कहते हैं कि यदि चरम भव के निरुद्ध हो जाने पर प्रथम भव होता है, तो वह नितुक होगा । यदि चरम भव निरुद्ध न हो और प्रथम भव हो तो भी वह नितुक होगा, और एक सत्व दोनों में रहकर द्विरूप होगा। चरम भव के निरुद्ध होते समय भी प्रथम भव उत्पन्न नहीं होगा, क्योकि 'निरुद्ध्यमान उत्पन्न होता है। यह कहने से एक काल में दो भत्र होंगे । इस प्रकार तीनों काल में भव की सिद्धि नहीं होगी। पूर्वोक्त विवेचन से भाववादियों का शाश्वतवाद या उच्छेदवाद में आपन्न होना निश्चित है। तथागत के अस्तित्व का निषेध अब एक बड़े ही गंभीर एवं रोचक विषय पर श्राचार्य का मत दिया जा रहा है। बहुत पुराने काल से बौद्धों में यह विवाद था कि तथागत हैं या नहीं १ रूपान्तर में यह प्रश्न भगवान् बुद्ध ( तथागत ) के समक्ष भी रखा गया था। उन्होंने इस प्रश्न को अव्याकरणीय कह कर मौन अवलंबन कर लिया। उनकी अव्याकरणीयता का यह उत्तर बुद्ध के बाद रहस्य बन गया, और उनके व्यक्तित्व के संबन्ध में अनेक वाद खड़े हो गये। महायानियों में विशेषतः माध्यमिक उनके व्यक्तित्व की सत्ता को सर्वथा अस्वीकृत करता है। किन्तु यादी कहता है कि तथागत है, और इसलिए भव-सन्तति भी है। उन्होंने महाकरुणा और प्रजा धारण कर धातुक के सकल सत्वों के दुःख-त्युपशम के निश्चय से असंख्य कल्पों में उद्भूत होकर अपने को क्षिति, सलिल, औषधि और वृक्ष के समान सत्वों का उपभोग्य बनाया, और सर्वज्ञता का लाभ कर पदार्थों का अशेष तत्व परिज्ञात किया । जैसा धर्म है तथैव ( तथा ) अवगत (गत ) करने के कारण वह तथागत हैं। ऐसे तथागतत्व की प्राप्ति किसी एक जन्म में संभव नहीं है। उसके लिए, भव-सन्तति आवश्यक है। श्राचार्य कहते हैं कि तथागत नाम का कोई भाव स्वभावतः उपलब्ध नहीं होता। तथागत नाम से कोई अमल एवं निष्प्रपञ्च पदार्थ होगा, तो वह पंच-स्कन्ध-स्वभाव (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विशानरूप) होगा या उससे भिन्न होगा। तथागत स्कन्धरूप नहीं है, अन्यया कर्ता कर्म एक होगा। एक मानने पर तथागत का उत्पाद-विनाश भी मानना होगा । तथागत स्कन्ध से अन्य भी नहीं हैं, अन्यथा वह स्कन्ध के बिना भी होंगे। इसलिए तथागत