पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६२१

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ऊनविंश अध्याय संसार की सत्ता का निषेध वादी कहता है कि संसार का सद्भाव है, इसलिए भावों का स्वभाव मानना होगा। संसार या संसृति एक गति से गत्यन्तर का गमन है।' भावों का स्वभाव न हो तो किसका गत्यन्तर में गमन होगा? सिद्धान्ती कहता है-भावों का स्वभाव तब होगा जब संसार हो, किन्तु वह प्रसिद्ध है। प्रश्न है कि संस्कारों का संसरण होता है या सत्वों का ? और जिन संस्कारों का संसरण होता है, वे नित्य है या अनित्य ? नित्य निष्क्रिय होते हैं, अतः नित्य संस्कारों का संसरण असंभव है । अनित्य उत्पाद के समनन्तर विनष्ट होते हैं, और विनष्ट अविद्यमान होने के कारण वन्ध्यासुत के संस्कारों के समान कही गमन नहीं कर सकते; अतः उनका भी संसरण श्रसिद्ध है। संस्कार अनित्य है, फिर भी वे हेतु-फल की संबन्ध-परंपरा से अविच्छिन्न रहते हैं, और मन्तान से प्रवर्तित होकर संसरण करते हैं; यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि कार्य-कारण में कार्य कहीं से श्रागमन नहीं करता, और कहीं गमन नहीं करता; अतः उसका संसरण नहीं होगा ! इसी प्रकार नष्ट कारण भी कहीं से आगमन नहीं करता, और कहीं गमन नहीं करता । वस्तुतः संस्कार के अतिरिक्त अतीत और अनागत की कल्पना असिद्ध है। क्योंकि उसके नष्ट और अजात रूप अविद्यमान होते हैं । यदि कोई कहे कि उत्तर क्षण के उत्पन्न होने पर पूर्व का संसरण होता है, तो यह तब संभव है जब पूर्वोत्तर क्षण एक हो । किन्तु उनका एकत्व संभव नहीं है, क्योंकि उनमें कार्य- कारण भाव इष्ट है । एक मानने पर पूर्व-उत्तर क्षण का व्यपदेश भी नहीं होगा, और 'पूर्व क्षण नष्ट हुआ' इसके कहने का कोई अर्थ नहीं होगा, क्योंकि वह उत्तर क्षण से श्रव्यतिरिक्त होगा। इसी प्रकार पूर्व क्षण के अभिन्न होने के कारण 'उत्तर-क्षण उत्पन्न हुश्रा' इस वाक्य का कोई अर्थ नहीं होगा। पूर्व और उत्तर क्षणों की भिन्नता माने, और उनका संसरण मानें तो अर्हतों का भी संसरण होगा, क्योंकि पृथग्जन की संसार में उत्पत्ति होती है। इतना ही नहीं, बल्कि प्रदीपान्तर के प्रज्वलित होने पर निर्वात प्रदीप की भी ज्वलन-प्रतीति माननी होगी। फिर प्रश्न होगा कि क्या नष्ट, अनष्ट अथवा नश्यमान पूर्व क्षण से उत्तर क्षण का उदय होता है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, अन्यथा बह्नि-दग्ध बीज से अंकुरोदय होगा। द्वितीय पक्ष में बीज के अविकृत रहने पर भी अंकुरोदय मानना होगा, जो अहेतुक होगा | तृतीय पक्ष असिख है, क्योंकि नष्टानष्ट से अतिरिक्त नश्यमान की सत्ता नहीं है। उक्त प्रकार से पूर्वोत्तर क्षण-व्यवस्था और कार्यकारण-व्यवस्था नहीं होगी, और सन्तान नहीं बनेगा। इन दोनों के प्रभाव में 'अनित्य संस्कारों का संसार है। यह पक्ष नहीं बनेगा। जैसे संस्कारों के संसार का निषेध है, उसी प्रकार 'सत्वों का संसार है' यह पक्ष भी निषिद्ध होता है। श्राचार्य यहाँ उस पक्ष का निराकरण करते हैं, जो पाल्मा को संस्कारों के समान नित्य-अनित्य न मानकर उसकी प्रवक्तव्यता में प्रतिपन्न है, और पुद्गल का संसरण मानता