पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६१५

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ऊनर्षिक्ष अध्याय होता। इसी प्रकार राग-रक्त-रञ्जनीय, देप-द्विष्ट-द्वेषणीय तथा श्रोत्र-श्रोता-श्रोतव्य का भी संसर्ग नहीं होता। संसर्ग के लिए द्रष्टव्यादि में परस्पर अन्यता होनी चाहिये। तभी दारोदक के समान वे अन्योन्य संमुष्ट होंगे । किन्तु इनमें अन्यत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिए इनमें संसर्ग भी नहीं होगा। इतना ही नहीं कि कार्यकारण रूप में अवस्थित द्रष्टव्यता आदि में परस्पर अन्यता असंभव है, प्रत्युत अत्यन्त भिन्न घटपटादि में भी परस्पर अन्यता सिद्ध नहीं होती। बसा भेद की अपारमार्षिकता अन्य पट की अपेक्षा से ही घट को पट से अन्य कहा जाता है। प्राचार्य कहते हैं कि पट में घट की अपेक्षा से अन्यता यही यह सिद्ध करता कि पट से घट अन्य नहीं है। क्योंकि नियम है कि जिसकी अपेक्षा से जो वस्तु होती है, वह उससे अन्य नहीं होती। जैसे-बीजांकुर । यदि घट पट की अन्यता को अपेक्षा अन्य है, तो वह पटातिरिक्त अन्य वस्तुत्रों से भी अन्य है। ऐसी दशा में पट-निरपेक्ष एक-एक घट अन्य होंगे, क्योंकि जो जिससे अन्य है, वह उसके बिना भी सिद्ध होगा--जैसे कोई भी घट अपने स्वरूप की निष्पत्ति में पट की अपेक्षा नहीं करता । इसी प्रकार जब पट के बिना भी घट का अन्यत्व सिद्ध होता है, तब उस पट-निरपेक्ष घट का परत्व भी सिद्ध होगा। किन्तु पट-निरपेक्ष एक-एक घट का अन्यत्व दृष्ट नहीं है । इसलिए घट की अन्यता स्वीकार करनेवाले पक्ष में जिसकी अपेक्षा से अन्यता अभीष्ट है, उसी से यह भी स्पष्ट होता है कि उसकी अपेक्षा से अन्यता नहीं है । पूर्वपक्षी एक तर्क करता है कि आपके मत में किसी की अपेक्षा से किसी में अन्यता नहीं है, तो आपका यह कहना भी संभव न होगा कि "अन्य की प्रतीति से ही किसी में अन्यता आती है, इसीलिए वह उससे अन्य नहीं है ।" सिद्धान्ती कहता है कि पदार्थों की अन्यता- सिद्धि परस्परापेक्ष है। इसलिए हम लोक-व्यवहार में किसी की अन्यता कहते हैं । वस्तुतः परीक्षा करने पर किसी की अन्यता सिद्ध नहीं होती। पूर्वपक्षी कहता है लोक-संवृति से श्राप घट पट की भाँति बीजार में भी अन्यता व्यप- देश क्यों नहीं करते ? चन्द्रकीर्ति इसका उत्तर देते हैं कि लोक घट पट के समान बीजाकुर की अन्यता में प्रतिपन्न नहीं है। ऐसा मानने पर घट पट के समान बीगडर में भी जन्य-जनकभाव नहीं होगा, और बीनाकुर में योगपद्य (एककालिकता ) भी मानना पड़ेगा। सामान्य-वियोष की मान्यता नहीं यहाँ वैशेषिक अपना पक्ष उठाता है कि हम किसी पदार्थ में पदार्यान्तर की अपेक्षा करके पखुद्धि नहीं मानते । सामान्य विशेष ही अन्यत्व है, वह जिससे समवेत (संबद्ध) होता है, वह वस्तु पदार्थान्तर निरपेक्ष होकर भी पर होती है । इसलिए आपके उक्त समस्त दोष मेरे पद में नहीं लगते।