पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६०

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भी पागम है। मध्यमा-भूमि में प्रान्तर परामर्श अन्तर में ही विभक हो जाता है। उस समय वह वेद्य वेदक प्रपंचोदय से भिन्न वाच्य याचक स्वभाव में उल्लसित हो जाता है । इस मध्यमा- भूमि में ही परमेश्वर चित् , मानन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया से अपने पंचमुखत्व का अमि- व्यंजन करते है, सदाशिव और ईश्वरदशा का प्राश्रय लेते हैं, और गुरु-शिष्य-भाव का परिग्रह करते हैं। इस पंचमुख के मेलन से ही वह पंचमोतोमय निखिल शास्त्रों की अक्तरमा करते है। यही शान का अवतरण है । प्रस्फुट होने के कारण यह इन्द्रिय का अगोचर है। किन्तु खरी भूमि में यह इन्द्रिय-गोचर होता है और पारस्फुट होता है। नागार्जुन, असंग या अन्य किसी भी प्राचार्य से किसी मी शास्त्र के अवतरण की एकमात्र प्रणाला यही है। ऋषियों के मनसाक्षात्कार की प्रणाली भी यही थी। यहां ध्यान देने की बात यह है कि धारक पुरुष के व्याकगत मानस संस्कार उस अवतीर्ण शान-शक्ति के साथ संश्लिष्ट न हो जायं । यदि ऐसा हो जाय तो भूति स्मृति में परिणत हो पाती है, तथा प्रत्यक्ष परोक्ष म परिणत हो जाता है । ऐसा दशा में अवतीर्ण ज्ञान का प्रामाण्य कम हो जाता है। मानव के दुमान्य स कमा कमा भानच्छया भी ऐसा हो जाता है। इस विषय में एक दो बातें और भी कहनी है। साधक वर्ग आयात्मिक उत्कर्ष की किसी-किसी भूमि में म्यांचगत भाव से दिन्यवाणी प्राप्त करते है। इन सभी वाणियों का मूल्य समान नहा है। इनक उद्गम के स्थान मा एक नहीं होते। स्पेन देश की सुप्रसिद्ध ईसाई साधिका सन्त दरसा नामक महिला ने अपनी बावनव्यापी अनुभूतियों के आधार पर नो सिदान्त प्रकट किये हैं, उनके अनुसार अलौकिक भवण के तीन विभाग किये या सकते है। १-स्थूल भवण । स्थूल होने पर भी साधारण भवण से यह विलक्षण है, क्योंकि यह ध्यानावस्था में होता है । लौकिक श्रवण से ध्यानब तुन्ध इन्द्रियब बाल श्रवण भिन्न है, क्योंकि वह बाहरी शन्द का नहीं है । यह प्रातिमासिक मात्र है । प्रतीत तो यह होता है कि यह शब्द कंठोपारित है और स्पष्ट है, फिर भी यह अवास्तव एवं विकल्पमन्य है । २-द्वितीय श्रवण इन्द्रिय संबन्धहीन कल्पनामात्र प्रस्त शन्द है। इन्द्रिय की क्रिया से कल्पना-ति में जैसी छाप लगती है यहां क्रिया न रहने पर भी वही प्रकार है। किन्तु यह भ्रम का विकार है। धातु-वैषम्य बनित देहिक विकार से यह विकार उत्पन्न होता है। पहले पति-शक्ति में विकार होता है, परचात् पूर्व संस्कारों में विकार होता है। 1-प्रामाणिक श्रवण । इसका टेरिस ने 'टियोप्युअल लाक्यूशन' नाम से वर्णन किया है । यह चिन्मय शब्द है। इसमें न बुद्धि का, न इन्द्रियों का और न कल्पना शकिका प्रमाव है। यह सत्य का सादात् प्रकायक है, और संशय का निवर्तक है । यह भगवत्-शकि के प्रभाव से हदय में उवित होता है, संशय विकारादि से यह सर्वथा मुक है।