पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद-धर्म-दर्शन लक्ष्य-लक्षण का खंडन सिद्धान्ती कहता है कि हमें यह विचार करना होगा कि लक्ष्य से लक्षण भिन्न है या अभिन । यदि लक्ष्य से लक्षण भिन्न है तो लक्ष्य से भिन्न अलक्षण भी है। उसके समान लक्षण भी अलक्षण क्यों नहीं होगा। इसी प्रकार लक्षण से भिन्न होने के कारण अलक्ष्यवत् लक्ष्य भी लक्ष्य नहीं रहेगा। एक दोष यह भी होगा कि लक्षण जब लक्ष्य से भिन्न है, तो अवश्य ही लक्षण निरपेक्ष है; किन्तु यदि लक्षण-निरपेक्ष लक्ष्य है, तो खपुष्प के समान वह लक्ष्य न होगा। इन दोपों से बचने के लिए वादी यदि लक्ष्य लक्षण की अभिन्नता माने फिर भी दोष मुक्त न होगा । लक्षण जैसे लक्षण से अभिन्न होने के कारण अपना लक्षणल्व छोड़ देता है, उसी प्रकार लक्ष्य भी अपनी लक्ष्यता छोड़ देगा। लक्ष्य लक्ष्य से अव्यतिरिक्त होने के कारण लक्ष्य-स्वभाव नहीं रहता, उसी प्रकार लक्षण भी अपनी लक्षण-स्वभावता छोड़ता है। प्राचार्य कहते हैं कि जब लक्ष्य-लक्षण एकीभाव और नानाभाव दोनों प्रकार से प्रसिद्ध हैं, तो उनकी सिद्धि किसी तीसरे प्रकार से नहीं की जा सकता। जो लोग लक्ष्य-लक्षण की अवाच्यता के आधार पर उसकी सिद्धि चाहते हैं, वे भ्रान्त है। क्योंकि अवाच्यता के लिए परस्पर विभागों का परिज्ञान न रहना आवश्यक है । किन्तु यहां 'यह लक्षण है' 'यह लक्ष्य है। इसका परिज्ञान संभव नहीं है। ऐसी अवस्था में उसके अभाव- शान की कथा सुतरां प्रसिद्ध है, क्योंकि अभाव-ज्ञान की सिद्धि के लिए जिसका अभाव विवक्षित हो, उसका शान आवश्यक होता है। शान के द्वारा लक्ष्य-लक्षण का परिच्छेद माने तो प्रश्न होगा कि परिच्छेद का कर्ता कौन है ? कर्ता के अभाव में ज्ञान का करणत्व भी कैसा १ चित्त कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थमात्र के दर्शन में चित्त का व्यापार है और अर्थविशेष का दर्शन चैतसों का व्यापार है। करणत्व की सिद्धि एक प्रधान क्रिया में दूसरी अप्रधान क्रिया के अंगभाव की निवृत्ति कराने से होती है, किन्तु यहाँ ज्ञान और विज्ञान की मिश्रित कोई एक प्रधान क्रिया नहीं है। विज्ञान की प्रधान क्रिया अर्थ-मात्र की परिच्छित्ति है, और शान अर्थविशेष का परिच्छेद करता है। इस प्रकार ज्ञान का करणव और चित्त का कर्तृत्व असंभव है। वादी कहते है कि आगमानुसार सर्व धर्म अनात्मा है, अतः यद्यपि कोई कर्ता नहीं है, किन्तु क्रियादि व्यवहार होता है। श्राप श्रागम के सम्यक् अर्थ से अवगत नहीं हैं। यदि कहें कि 'राहोः शिरः' (राहु का शिर) इस प्रयोग में भी शिर अतिरिक्त विशेषण नहीं है, फिर भी भिषण-विशेष्य व्यवहार होता है । इसी प्रकार 'पृथिव्याः स्वलक्षणम्' (पृथिवी का स्वलक्षण में लक्ष्य-लक्षण का व्यवहार होगा, यद्यपि स्वलक्षण से अतिरिक पृथिवी नहीं है। सिद्धान्ती कहता है कि राहोः शिरः'प्रयोग में पाणि आदि अंगों के समान अन्य अंगों के अपेछा से (पदार्थान्तर साकांक्ष) शिरादि बुद्धि उत्पन्न हो सकती है, और अन्य संबन्ध के निर। करण के लिए राहु विशेषण भी युक्त हो सकता है, किन्तु काटिन्यादि से अतिरिक्त पृथिवी नहीं है अतः यहाँ विशे य-विशेषण भाव नहीं होगा। यदि कहे कि अन्य वादियों को पृथिवी का लक्ष्य