पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौद-पम-दर्शन नहीं जान सकते, यथा बुद्ध उसे जान सकते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्यों में इस विषय की वितथ-प्रतिभास्तिा होती है, क्योंकि उनमें अभी ग्राह्य ग्राहक भाव का उपच्छेद नहीं हुआ है। पुनः शुश्रान-बांग इस स्थान पर इसका प्रयत्न करते हैं कि उनका विशानवाद' शुद्ध अात्मवाद में पतित न हो। वह कहते हैं कि विज्ञप्तिमात्रतावाद की यह शिक्षा नहीं है कि केवल एक विज्ञान है, केवल मेरा विज्ञान है। यदि केवल भैस विज्ञान है तो दस दिशाओं के विविध पृथजन-अार्य, कुशल-अकुशल, हेतु-फल सब तिरोहित हो जाते हैं। कौन बुद्ध मुझे उपदेश देता है और किसको मुद्ध उपदेश देते हैं ? किस धर्म का वह उपदेश करते हैं। और किस फल के अधिगम के लिए? किन्तु विज्ञानवाद की यह शिक्षा कभी नहीं रही है। विज्ञप्ति से प्रत्येक सल्व के पाठ विज्ञान समझना चाहिये । यह विज्ञानस्वभाव हैं। इनके अतिरिक्त विज्ञप्ति से विज्ञान-संप्रयुक्त प्रकार के चैत, दो भाग-दर्शन और निमिश-जो विज्ञान और चैन के परिणाम हैं, विप्रयुक्त विज्ञान जो चैत और रूप के श्राकार विशेष है, और तथता जो शून्यता को प्रकट करती है, और जो पूर्व चार प्रकार का यथार्थ स्वभाव है, समझना चाहिये । इसी अर्थ में सर्व धर्म विज्ञान से भिन्न नहीं हैं। इसीलिए, यह कहा जाता है कि सर्व धर्म विज्ञप्ति है और मात्र शब्द इसलिए अधिक है, जिसमें विज्ञान से भिन्न रूपादि द्रध्यसत् के अस्तित्व का प्रतिषध किया जाय। जो विशतिमात्रता की शिक्षा को यथार्थ जानता है, वह विपर्यास से रहित हो पुण्यसंभार और शानसभार के लिए, यत्नशील होता है । धर्मशून्यता में उसका प्राशु प्रतिवेध होता है, और वह महाबोधि का साक्षात्कार कर संसार से अस्ति जीवों का परित्राण करता है। किन्तु सर्वथा अपवादक, जो शून्यता को विपर्यास संज्ञा रखता है ( भावविधक) श्रागम और युक्ति का व्यपकर्ष करता है, और इन लाभों का प्रतिलाभ नहीं कर सकता। यह अपवादक माध्यमिक हैं, जो सर्वदा शत्यता का दावा करते हैं और अद्वय विज्ञानवाद की ओर जो शून्यवाद का झुकाव है, उसका विरोध करते हैं। एक मुख्य प्रश्न यह है कि किस प्रकार परमार्थ विचानवाद' का सामंजस्य बाह्यलोक के व्यावहारिक अस्तित्व से हो सकता है। माना कि विज्ञान के बाहर कुछ नहीं है। तब बाह्य प्रत्यय के अभाव में हम विकास की विविधता का निरूपण कैसे करते हैं ? शुमान चांग वसुबन्धु का उत्तर उद्धृत करते हैं (त्रिशिका, कारिका १८)-सर्व बीच विज्ञान का अन्योन्यवश उस उस प्रकार से परिणाम होता है। इस विशान से वह वह विकल्प उत्पन्न होते है। अर्थात् बिना किसी बाह्य प्रत्यय के प्रालय-बीज के विविध परिणाम होने के कारण, और संभूत अष्ट विशानों की अन्योन्य सहायता से, अनेक प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते है। सर्व बीज विज्ञान से विविध शक्ति और बीज अभिप्रेत है जो अपने फल अर्थात् सर्व संस्कृत-धर्मों का उत्पाद करते हैं। यह फल मूल विज्ञान में विद्यमान हैं। इन शक्तियों या बीजों