पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५५

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1 कहा गया है- काकागत् कारणे शान्ते सकाराल्लयोऽत्र वै। अकारान्चलनित्तम्य कागत् क्रमवन्धनैः ।। अर्थात् जाग्रत् अवस्था के बीण होने के कारण बोधिचित्त-काय शान्त या विकरुप- हीन होता है, यही 'का' से अभिप्राय है। काय-विन्दु के निरोध से ललाट में निर्माण- काय नाम का बुद्ध-काय प्रकट होता है। स्वप्नावस्या का जो क्षय होता है यही प्राण का लय है । इस अवस्था में वाग-बिन्द का निरोध होता है। इससे कण्ट में संभोग-काय का उदय होता है, जो 'ल' से अभिप्रेत है । सुषुभि के नय होने पर चित्त-बिन्दु का निरोध होता है । उस समय हृदय में धर्मकाय का उदय होता है । जाग्रत् नथा म्वनावस्था में नित्त शन्दादि विषयों में विचरण करता है। इसीलिए चंचल रहता है और नम मे अभिमृत गाता अट्ठारह प्रकार के धातु-विकागें से वह विकृत होता है। इन अपसारण मे में चित्त निरुद्ध हो जाता है। यही 'च' का अभिप्राय है | ह के बाद तुरीयावस्था का भी तय हो जाता है। तन कायादि सब बिन्दु सहज सुख के द्वारा अच्युत हो जाने हैं। उसी समय तुरीयावस्था का नाश होता है। स्वरगत ज्ञानबिन्दु के निरोध से नाभि में महज-गाय का आविर्भाव होता है। यही 'क' का अभिप्राय है । अताव कालचक्र नार बद्ध कार्यों का ममाहार है। यह प्रज्ञा तथा उपाय का सामरस्य है। एकाधार में यही ज्ञान है, और यही जय भी है। शान का तात्पर्य है, अक्षर-सुख का बोध | इससे सब प्रावरणों का क्षय होता है । ज्ञेय से अभिप्राय है, अनन्त भावमय त्रैधातुक जगत्-चक्र, अर्थात् ममा विश्व । प्रज्ञा शन्यात्मक है, और उपाय करणात्मक तथा षडभिज्ञात्मक है । प्रज्ञा शन्याकार है, परन्तु करुणा सर्वाकार है । दोनों का एकत्व ही काल. चक्र है । यही यथार्थ युगनद्ध है | कालचक्रतन्त्र में लिखा है कि शुद्ध तथा अशुद्ध भेद से अनन्त विश्व ही चक्रस्वरूप है । किन्तु अनन्त होकर भी यह एक ही है | बुद्ध या शंभु जैसे एक है, उनका चक्र भी वैसे एक है। वस्तुतः बुद्ध और चन अभिन्न है। अनन्त बुद्ध-क्षेत्र, अनन्त गुण, अाकाशादि सर्वधातु, उत्पत्ति-स्थिति-विनाशामक तीन प्रकार के भव, छः गतियों में विद्यमान सकल साब, बुद्धगण, क्रोधगण, सुरादिवर्ग, काया, बोधिसत्वगण ये सभी इस प्रखा महाचक्र के अन्तर्भूत है। यह कालचक्र ही आदि-बुद्ध है। नामसंगीतितंत्र में अनादिनिधनो बुद्ध श्रादिबुद्धो निरन्वयः । ऐतिहासिक युद्धगण इन्हीं के बहिः प्रकाश हैं। साधक के रष्टिकोण से देखने पर इस काल-ना में तीन मात्रा तथा तीन मुद्राएँ लक्षित होती है। बोधिचित्त की सरगति मृदुमात्रा है। स्पन्दर्गात है मध्यमात्रा, निष्यन्दर्गात है अधिमात्रा। जिससे अक्षर-मुख का उदय होता है वह कर्म मुद्रा है। जिससे स्पन्द-सुख का उदय होता है वह शन-मुद्रा है । जिससे निष्यन्द-सुख का उदय होता है वह महामुद्रा है। पलंग योग के भय इन सीन माओं की भावना और-स्त्रों में उपदिष्ट हुई है।