पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२७

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महारा मध्याव संग्रह-स्थान है। अथवा सर्व धर्म इसमें कार्यभाव से श्रालीन होते हैं (प्रालीयन्ते) अथवा उपनिबद्ध होते हैं। अथवा यह सब धर्मों में कारणभाव से प्रालीन होता है, अत: इसे प्रालय कहते हैं (स्थिरमति)। इसे मुलविज्ञान भी कहते हैं । शुश्रान-बांग कहते हैं : धर्म प्रालय में बीजों का उत्पाद करते हैं। यह श्रालय-विधान को संग्रह-स्थान बनाते हैं, और उसमें संगृहीत होते हैं। पुन: मन का श्रालय में अभिनिवेश अात्मतुल्य होता है। सखों की कल्पना होती है कि श्रालय-विशान उनकी श्रात्मा है। इसका अर्थ यह है कि विज्ञानवाद में श्रालय-विधान का वही स्थान है, जो श्रात्मा और जीवितेन्द्रिय दोनों का मिलकर अन्य वादों में है । पुनः श्रालय-विज्ञान कर्मस्वभाव भी है, अतः इसे विपाक-विज्ञान भी कहते हैं। जिन कुशल-अकुशल कर्मों को एक भव धातु-गति-योनि-विशेष में प्राक्षित करता है, उनका यह श्रालय 'विपाकफला है । इसके बाहर कोई जीवितेन्द्रिय, कोई सभागता नहीं है। और न कोई ऐसा धर्म है, जो सर्वदा अनुप्रबद्ध हो, और वस्तुतः विपाक-फल हो । श्रालय-विज्ञान कारणस्वभाव भी है। इस दृष्टि से यह सर्वबीजक है। यह बीजों का श्रादान करता है, और उनका परिपाक करता है । यह उनका प्रणाश नहीं होने देता। शुश्रान-च्चांग कहते हैं कि इस मूल विज्ञान में शक्तियाँ ( सामर्थ्य ) होती है, जो फल का प्रत्यक्ष उत्पाद करती है; अर्थात् प्रवृत्ति-धर्म का उत्पाद करती है। दूसरे शब्दों में बीब, जो शक्ति की अवस्था में श्रालय में संग्रहीत धर्म है, पश्चात् फलवत् साक्षात्कृत धर्मों का उत्पाद करते हैं। पाखव की सर्वबीजकता-शुश्रान-च्यांग बीज के संबन्ध में विविध प्राचार्यों के मत का उल्लेख कर अन्त में अपना सिद्धान्त व्यवस्थापित करते हैं। चन्द्रपाल सब बीबों को प्रकृतिस्थ मानते हैं, और नन्द सत्रको भावनामय मानते हैं। धर्मपाल का मत है कि सासव और अनासव बीज अंशतः प्रकृतिस्थ होते हैं, और अंशतः कों की वासना से भावित विधान के फल है। पहले बीन प्रकृतिस्थ और दूसरे भावनामय कहलाते हैं। प्रकृतिस्थ बीच विपाक- विद्यान में धर्मतावश अनादिकाल से पाए जाते हैं। भावनामय बीब अभ्याससिद्ध है। भग- भगदूचन है कि सत्वों का विज्ञान क्लिष्ट और अनासव धर्मों से वासित होता है। यह असंख्य बीजों का संचय भी है। इस नय में श्रालय-विगन और धर्म अन्योन्य का उत्पाद करते हैं, और इनका सदा कार्य-कारणभाव है। हम कह सकते हैं कि श्रालय-विज्ञान में धर्मों का निरन्तर स्वरूप-विशेष (स्ट्रैटीफिकेशन) होता है, और मालय विज्ञान नवीन धर्म प्राक्षिप्त करता रहता है। यह नित्य व्यापार है । बीब अनादिकाल से प्रकृतिस्थ है, किन्तु क्लिष्ट और अविष्ट कर्मों से पुनः पुनः भावित हो उनसे वासित होते हैं, और मानों उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में द्रव्य-सत् एक शक्ति है, जो निरन्तर जीवन की सृष्टि करती है, और इस सृष्टि से अपना पोषण करती है। एआन-बांग धर्मपाल के मत को स्वीकार करते हैं ।