पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१

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भिषेक और अनुशाभिषेक। इसमें पहले दो देह शुद्धि के लिए हैं। तृतीय और चतुर्थ से वाक्-शदि होती है । पंचम और षष्ठ से चित्त-शुद्धि होती है। समम से शान-शुद्धि होती है। अभिषेक के संबन्ध में बाझ विवरण वज्रयान के बहुत से ग्रन्थों में है। उसकी यहाँ चर्चा अना- वश्यक है। देह पंचधातुमय है । उष्णीष से लेकर कटिसन्धि तक पंच जन्म-स्थानों में यथाविधि समन्त्रक अभिषेक के द्वारा पंचधातुओं की शुद्धि की जाती है। इससे काय शुद्ध हो आता है। इसी का नाम उदकाभिषेक है। मुकुटाभिषेक से पंचस्कन्ध या पंचतथागत की शुद्धि होती है। इस प्रकार प्रथम तथा द्वितीय से धातु तथा स्कन्धों के निर्मल हो जाने के कारण काय की सम्यक् शुद्धि हो जाती है। पट्टाभिषेक और वज्रघण्टाभिषेक के द्वारा दस पारमिताओं की पूर्ति होती है। इससे चन्द्र और सू' का शोधन होता है । पंचम से रूपादि विषय तथा चक्षुरादि इन्द्रियों का शोधन होता है। इससे प्राकृत विषयों के नियन्त्रण तथा महामुद्रा की सिद्धि में सहायता मिलती है । 'पष्ठ से राग-द्वेष का शोधन होता है, और मैत्री प्रादि ब्रह्मविहारों की पूर्ति होती है। पाभिषेक के बाद की अवस्था का 'वजा शन्द से अभिधान होता है। सप्तम अभिषक धर्मनक्रप्रवर्तन के लिए. या बुद्धत्वलाभ के लिए है। अपरिमित सत्वों के श्राशय के अनुसार परमगुह्य वज्रयान के रहस्य का उपदेश करने के लिए संवृतिसत्य तथा परमार्थसत्य को विभाग किया जाता है। इस प्रकार बुद्धत्व के निष्पादन के लिए, सप्तम अभिषक का उपयोग है। इन सात अभियेकों से शिष्य के कायादि चार वन शुद्ध हो जाते हैं। उस समय उनके हाथ में पारण करने के लिए, वज्र या बजाएटा होता है। अभिषेक के संवृति तथा परमार्थ दो रूप है। संवृति भी दो प्रकार की है-लोक- संवृति तथा योगी-संवृति । लोक-संवृति को अधर-संवृति तथा योगी-संवृति को उत्तर-संवृति कहा जाता है। पहले उदकादि सप्त सको का नाम कहा गया है। ये लौकिक सिद्धि के सोपान हैं। ये सब पूर्वसेक हैं, उत्तरसेक नहीं। योगी-मंतिरूप सेक कुंभादि तीन प्रकार के हैं कुंभाभिषेक या कलशाभिषेक, गुह्याभिषेक और प्रज्ञाभिषेक। ये उचरसेक लोकोत्तर सिद्धियों के भूल है । यद्यपि ये सांवृत है, फिर भी परमार्थ के अनुकूल हैं। परमार्थ सेक हो अनुत्तर सेक है । पूर्वसेक के लिए मुद्रा अावश्यक नहीं है। उत्तरसेक के लिए भद्रा आवश्यक है । अनुत्तर के लिए कुछ कहना ही नहीं है। अब तान्त्रिक बौदों के पडङ्ग योग के संबन्ध में दो चार बातें कही जायगी। हठयोग तथा राजयोग में षडङ्ग या अष्टाङ्ग दोनो ही प्रसिद्ध है। बौद्धों का षडङ्ग योग इससे विलक्षण है। इसका प्राचीन विवरण गुह्यसमाब में तथा मजुश्रीकृत कालचक्रोत्तर में पाया जाता है । परवर्ती साहित्य में, विशेषतः नडपाद की सेकोदेशटीका में तथा मर्मकलिकातन्त्र में इसका वर्णन है। बहुत से लोग इसे बौद्ध-योग के नाम से भी वर्णन करते हैं । यह सत्य भी है । परन्तु ब्रह्मसूत्र के माध्य- कार भास्कराचार्य भी अपनी गीताटीका में ठीक इसी क्रम पडङ्ग योग का उल्लेख करते हैं। यह टीका अभी तक प्रकाशित नहीं है । प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति, समाधि