पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०

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महाबिन्दुस्थान में बाने पर मुक्ति या नित्य मानन्द का प्राविर्भाव होता है । बिन्दु की स्थिरता ही ब्रह्मचर्यानुष्ठान का फल है। बिन्दु के स्थिर जाने पर योग क्रिया के द्वारा क्षोभण से उसमें स्पन्दन कराया जाता है। वैदिक सिद्धि के बाद विवाहोत्तर गृहस्थाश्रम के संबन्ध में 'सस्त्रीको धर्ममाचरेत्' का भी यही अभिप्राय है । उसके बाद उसमें क्रमशः अभ्यगति होती है। इस गति की निवृत्ति ही महासुख का अभिव्यंजक है । कर्ममुद्रा प्रारम्भिक है । कर्मपद का वाच्य है काय, वाक् तथा चित्त की चिन्तादिरूप क्रिया । इस मुद्रा के अधिकार में क्षण के भेद से चार प्रकार के श्रानन्दों की अभिव्यक्ति होती है। इनके क्रम के विषय में श्रद्वयवन के अनुसार तृतीय का नाम सहबानन्द और चतुर्थ का विरमा- नन्द है। यह क्रम इसलिए है कि परम और विराम के मध्य में लक्ष्य दर्शन होता है । चार क्षणों के नाम हैं—विचित्र, विपाक, विलक्षण और विमर्द । धर्ममुद्रा धर्मधातु स्वरूप है । यह निष्प्रपंच, निर्विकल्प, अकृत्रिम, अनादि अथ च करुणास्वभाव है । यह प्रवाहेण नित्य है, इसलिए सहज खभाव है। धर्ममुद्रा को स्थिति में अज्ञान या भ्रान्ति पूर्णतया निवृत्त हो जाती हैं। साधारण योग-साहित्य में देहस्थित वाम नाड़ी तथा दक्षिण नाड़ी को बायर्तमय मानकर सरल मध्य नाड़ी को अर्थात् सुषुम्ना या ब्रह्मनाड़ी को योग या ज्ञान का मार्ग माना जाता है। आगमिक बौद्ध साहित्य में भी ठीक इसी प्रकार ललना तथा रसना नाम से पार्श्ववर्ती नाहीद्वय को प्रज्ञा और उपायरूप माना है, और मध्य नाड़ी को अवधूती कहा है । अवधूती का नामान्तर धर्ममुद्रा है । तषता के अवतरण के लिए यही संनिकृष्ट कारण है, अतः यही मार्ग है। मध्यमा-प्रतिपत् यही है । आदर के सहित निरन्तर इसके अभ्यास से निरोध का साक्षात्कार होता है। हान और उपादान वर्जित जी स्वरूपदर्शन है, वही सत्यदर्शन है। इस मध्य-मार्ग में ज्ञानान्तर्वर्ती ग्राह्य तथा ग्राहक-विकल्प छूट जाते हैं। तृतीय मुद्रा का नाम महामुद्रा है। यह निःस्वभाव है, और सर्व प्रकार के श्रावरणों से वर्जित है, मध्याह्न गगन के सदृश निर्मल और अत्यन्त स्वच्छ है । यही सर्वसंपत् का अाधार है । एक प्रकार से यह निर्वाण स्वरूप ही है । यहाँ अल्पित संकल्प का उदय होता है । यह अप्रतिष्ठित मानस की स्थिति है । यह पूर्ण निरालम्ब अवस्था है। योगी इसे अस्मृत्यमनसिकार नाम से वर्णन करते हैं । इसका फल समय-मुद्रा या चतुर्थ-मुद्रा है। यह समय अचिन्त्य स्वरूप है। इस अवस्था में जगत् कल्याण के लिए स्वच्छ एवं विशिष्ट संभोग- काय तथा निर्माणकाय-स्वभाव होकर वज्रघर के रूप में इसका स्फुरण होता है। इस विश्वकल्याण- कारी रूप को तिब्बती बौद्ध हेरुक नाम देते हैं। प्राचार्थगण इस मुद्रा को ग्रहण कर चक्राकार में पांच प्रकार के ज्ञान की पांच प्रकार से परिकल्पना करके श्रादर्श-जान, समता-ज्ञान आदि का प्रकाश करते हैं। (१२) अभिषेक के विषय में कुछ न कहने से योग-साधन का विवरण संपूर्ण ही रहेगा। अतः इस विषय में भी संक्षेप से कुछ कहा जा रहा है । वज्रयान के अनुसार अभिषक सात प्रकार के है। यथा-उदकाभिषक, मुकुटामिपंक, पट्टाभिषेक, बघण्टाभिषेक, वजनताभिषेक, नामा-