पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९०

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४०२ चौद्ध-धर्म दर्शन कराता है; यह समाधि की अवस्था में चित्त का स्वधातु में अवश्थान कगता है; यह भाव-अभाव का एक अविशिष्ट दर्शन कराता है; यह श्राश्रय की परावृत्ति करता है । यह परावृत्ति प्रत्यगात्मा से परमात्मा को आकृष्ट करती है । उस समय सबका परिनिर्वाण में मिलन होता है (सिलवा लेवी की भूमिका, पृ० २५-२६)। मनस्कार और उसके विविध प्रकारों की पर्येष्टि से इस क्रम का श्रारंभ होता है। चर्या के बहुत सूक्ष्म नियम है। इस साधना में इन्द्रियार्थ का अनुपलंभ, उपलंभ का अनुपलभ, धर्मधातुवशित्य, पुद्गलनैरास्म्य और विविध श्राशयों का प्रतिवेध होता है; जो चित्त की अवस्थाओं को निश्चित करता है। तत्व का लक्षण -इस साधना से धर्मतत्व का लाभ होता है। यह धर्मों का स्वभाव है । यहाँ स्वभाव किसी श्रात्मा को प्राप्त नहीं करता किन्तु यह धर्मों के स्वकीय गुण को सूचित करता है। श्रसंग तत्व का यह लक्षण बताते हैं :-तत्त्व वह है जो सतत द्वय से रहित है, जो अनमिलाप्य है, जो निष्प्रपश्चात्मक है, और जो विशुद्ध है (११।१३ ) । पुनः श्रसंग कहते हैं कि ग्राधग्राहक लक्षणवश यह तत्व जो सतत दूय से रहित है, परिकल्पित और असत् होगा। किन्तु भ्रान्ति का संनिश्रय परतन्त्र है, क्योंकि उससे उमका परिकल्प होता है । अनभिलाप्य तत्व का परिनिष्पन्न-खभाव है । यह सब धर्मों की तयता है । परिनिष्पन्न तस्व-यह परिनिष्पन्न स्वभाव, यह तथता, यह तत्त्व अन्तिम वस्तुतत्य है । इसकी प्रशंसा में असंग कहते हैं। जगत् में इससे अन्य कुछ भी नहीं है, और सकल जगत् इस विषय में मोह को प्राप्त है। यह कैसा मोह है जिसके वश हो लोक जो असत् है उसमें अभिनिविष्ट है, और जो सत् है उसका त्याग करता है । वस्तुतः इस धर्मधातु से अन्य लोक में कुछ भी नहीं है, क्योंकि धर्मता धर्म से अभिन्न है ( ११११४ )। आत्मा और लोक की मायोपमसा-इस दृष्टि में आत्मा और लोक क्या है ? अरंग का उत्तर है कि यह मायोपम है । अभूतपरिकल्प मायासदृश है । यह मन्त्रपरिगृहात भ्रान्तिनिमित्त काष्ठलोटादि के सदृश है । मायाकृत हस्ति-अश्ववत् द्वयभ्रान्ति ग्राह्यग्राहक के रूप में प्रतिभासित होती है ( ११।१५)| असंग आगे कहते हैं ! -यथा मायाकृत हस्ति-अश्व-सुवर्णादि श्राकृतियों में हत्यादि का अभाव है, तथैव परमार्थ के लिए है, और जिस प्रकार उस मायाकृत इत्यादि की उपलब्धि होती है, उमी प्रकार अभूतपरिकल्प की संवृतिसत्यता है (११।१६)। जिस प्रकार मायाकृत के अभाव में उसके निमित्त ( काष्ठादिक ) की व्यक्ति होती है, और भूतार्थ की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार श्राश्रय की परावृत्ति और द्वय प्रान्ति का अभाव होता है, और अभूतपरिकल्प का भृतार्थ उपलब्ध होता है ( ११।१७ )। श्राभयपरावृत्ति से भ्रान्ति दूर होती है, और यति स्वतन्त्र हो विचरता है । वह काम- चारी होता है ( १९३१८)। एक अोर वहाँ श्राकृति है, दूसरी ओर भाव नहीं है। इसीलिए मायादि में अस्तित्व-नास्तित्व का विधान है ( १९६१६)। यहाँ भाव अभाव नहीं है, और