पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८६

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बौद्धधर्म-दर्शन जैसा ऊपर निर्दिष्ट किया गया है बुद्ध का कार्य विना श्राभोग के निरन्तर होता है, और वह हितसुखात्मक निश्चलता का कमी त्याग नहीं करते। वह अनेक उपायों का प्रयोग करते हैं। कभी अनेक प्रकार से धर्मचक्र का दर्शन कराते है, कभी जातकभेद से विचित्र जन्मचर्या, कभी करून बोधि, और कभी निर्वाण का दर्शन कराते हैं। किन्तु वह अपने स्थान से ही सत्वों का विनयन करते हैं। वह अनावधातु से विचलित नहीं होते, किन्तु यह सब वही करते हैं । बुद्ध नहीं कहते कि इसका मेरे लिए, परिपाक हो गया है, इसका मुझको परिपाक करना है, या इसका परिपाक अब होने वाला है । बिना किसी संस्कार के बनता का परिपाक शुभ धर्मों से सब दिशाओं में नित्य होता है। जिस प्रकार सूर्य विना किसी यत्न के अपनी प्रतत शुभ्र किरणों से सर्वत्र सस्य का पाक करता है, उसी प्रकार धर्म का सूर्य अपनी शान्त धर्म-किरणों को समन्तात् विस्तीर्ण कर सत्यों का पाक करता है (६५२-५३)। रेनेग्रसे की मासोचना-प्रसंग की यह चेष्टा निरन्तर रहती है कि वह नागार्जुन के मतवाद के विरुद्ध न जाय, किन्तु कभी कभी वह हमको उनसे बहुत दूर जाते प्रतीत होते हैं। इस वाक्य को लीजिए. (६५५)- यथा महासागर की कभी जल से तृप्ति नहीं होती और न प्रतत चल के प्रवेश से उसकी वृद्धि ही होती है, तथैव विमुक्ति में परिपक्वों के प्रवेश से न धर्मधातु की तृप्ति होती है, और न उसकी वृद्धि होती है; क्योंकि उससे कोई अधिक नहीं है। क्या असंग, जान में हो या अनजान में, बुद्धत्व का निदर्शन इस प्रकार नहीं कर रहे है कि मानों वह एक प्रकार का श्राध्यात्मिक आकाश है, जहाँ सर्व धर्म की तथता विलीन होकर सुविशुद्ध और अद्वय हो जाती है ? सर्व परतन्त्र और सर्व विशेष की 'विशुद्धि' का भाव, उपशम द्वारा एकता और विशुद्धि प्राप्त करने का भाव असंग में निरन्तर विद्यमान है। वह दुहराते है कि बुद्धत्व का लक्षण सर्व धर्म की तथता की क्लेशावरण और जेयावरण से विशुद्धि है (६५६ )। इसका अर्थ यह है कि 'बुद्धत्व में तथता सर्व धर्मों से विशुद्ध हो जाती है।। विकायवाद असंग बुद्धत्व की भिन्न वृत्तियों का प्रारम्भ कर त्रिकायवाद का निरूपण करते हैं। त्रिकाय की कल्पना से वह विज्ञानवाद की फटिनाइयों को दूर करते हैं। बुद्धकाय के तीन विभाग है:---स्वाभाविक, सांभोगिक, नर्माणिक । स्वाभाविक काय धर्मकाय है । धाश्रय- परावृत्ति इसका लक्षण है। सांभोगिक कार यह काय है, जिससे पर्यन्मएडल में बुद्ध धर्म- संभोग करते हैं । नैक्षणिक काय वह काय है, जिसका निर्माण कर वह सस्वार्थ करते हैं । धमकाय-धर्मकाय सब बुद्धों में समान और निर्विशिष्ट है । यह सूक्ष्म है क्योंकि यह दुडेय है। यह सामोगिक काय से संबद्ध है, और संभोग के विभुत्य में हेतु है (६६२)। सांभोगिक काय धातुत्रय के ऊपर अवस्थित है। यह बुद्धों का अचिन्त्य अविर्भाव है। कम से कम हमारे लिए यह अगोचर है। बोधिसत्व ही अपनी प्रज्ञा से इनका चिन्तन कर सकते हैं। यह काय नित्य है, किन्तु यह एक प्रावित्रि है : पम्मएडल, बुद्ध-क्षेत्र, नाम, शरीर