पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८१

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सहवामयाब जिस श्राशय से बोधिसत्व सत्वों का परिपाक करता है, वह श्राशय माता-पिता-बान्धवादि के प्राशय से विशिष्ट है, और श्रात्म-वात्सल्य से भी विशिष्ट है । आत्म-वत्सल पुरुष अपना हित मुख संपादित करता है, किन्तु यह कृपात्मा पर-सत्व-वत्सल है, क्योंकि यह उनको हित-सुख से समन्वित करता है [ ८११४-१५] । जिस प्रयोग से बोधिसत्व सत्वों का परिपाक करता है, वह पारमितानों का प्रयोग है। वह त्रिविध दान से उनका परिपाक करता है । उसके लिए कुछ भी श्रदेय नहीं है। वह अपना सर्वस्व शरीर, भोगादि दान में देता है । उसका दान विषम नहीं होता, और उससे उसकी कभी तृप्ति नहीं होती। वह सलों पर दो प्रकार का अनुग्रह करता है-दृष्ट-धर्म में वह उनकी इच्छाओं को पूर्ण करता है, और उनकी कुशल में प्रतिष्ठा करता है । वह स्वभाव से स्वयं शीलवान् है, और वह दूसरों को शील में सन्निविष्ट करता है । वह तान्ति द्वारा सत्वों का परिपाक करता है । यदि कोई उसका अपकार करता है, तो भी वह प्रति- उपकार की ही बुद्धि रखता है । वह उन व्यतिक्रम को भी सह लेता है । वह उपायश है, और वह ऐसे उड़े का भी प्रार्वजन करता है, और उनको कुशल में संनिविष्ट करता है । वह अनन्त सत्वों के परिपाक के लिए, कुशल कर्म करते हुए, भी नहीं थकता । इसी प्रकार ध्यान और प्रशा से वह परिपाचन-क्रिया करता है। वह विविध प्रकार से सल्वों का परिपाचन करता है। किसी का विनयन सुगति गति के लिए, किसी का यानत्रय के लिए होता है । पुरव (बोधि) लक्षण इस प्रकार प्रात्म-परिपाक कर बोधिसत्व बोधि का लाभ करता है। नर्वे अधिकार में बोधि का सविस्तर वर्णन है । सर्वगत ज्ञान होने के कारण बोधि लोकधातु से अनन्य है, क्योंकि सर्व ज्ञान अपने अर्थ से अभिन्न है; अतः सर्व धर्म बुद्धत्व है। बुद्धत्व तथता से अभिन्न है, और तथता की विशुद्धि से प्रभावित है। बुद्धत्व स्वयं कोई धर्म नहीं है, क्योंकि धर्मस्वभाव परिकल्पित है। बुद्धत्व शुक्र धर्ममय है, क्योंकि पारमितादि कुशल की प्रवृत्ति उसके अस्तित्व से होती है। शुक्र धर्मों से यह निरूपित नहीं होता, क्योंकि पारमितादि पारमितादिभाव से परिनिष्पन्न नहीं है । यह अद्वय लक्षण है। यद्यपि यह तथता है, तथापि यह अधर तथताओं का समुदाय नहीं है। इसमें वह है, किन्तु यह उनके अन्तर्गत नहीं है। श्राश्रय-परावृत्ति से ही चित्त इस अवस्था को प्राप्त होता है यह परावृत्ति चित्त का विपरिणाम करती है, और उसको उत्कृष्ट बनाती है, यहाँ तक कि चित्त आकाश संशा को प्राप्त होता है, जो अत्यन्त विशुद्ध और अत्यन्त सर्वगत है, और जिससे सब विकल्प अपगत हो गए हैं। अनासव-धातु ( वह धातु जो धर्मों के प्रवाह से रहित है) में बोधि का एक प्रकार का द्रव्य होता है । यहाँ बोधिसत्व निवास करते हैं, और यह धर्मतपता से अन्य नहीं है। किन्तु जब एक बार बोधि विविध भूमियों से होकर अपने स्थान को पहुँचाती है, तब इसका क्या कारण है कि यह विपरीतभाव से धर्मों की ओर पुनः प्रवृति होती है।