पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७८

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बौद्ध-धर्म-दर्शन स्थिति, प्रशाविमुक्ति में सहायक होती है; उनको अभिज्ञादि विशेष गुणों से विभूषित करता है, तथागत-कुल में । जन्म, आठवीं भूमि में व्याकरण, दशवी भूमि में अभिषेक और साथ ही साथ तथागत-शान का लाभ उनको कराता है । प्रजुलुस्की के शब्दों में महायान बार बार इस वास्य को दुहराता है कि-' -"स्वर्ग बाना छोटी सी बात । मेरी तो प्रतिजा है कि मैं तुमको भी वहाँ ले चलूँगा।" प्रसंग के दार्शनिक विचार अपवाद-इसके पश्चात् असंग दार्शनिक प्रश्नों को लेते हैं। छठे अधिकार के प्रारम्भ के विचार माध्यमिक है । "परमार्थ न सत् है, न असत् । न तथा है, न अन्यथा; न इसका उदय होता है, न व्यय; न इसकी हानि होती है, न वृद्धि; यह विशुद्ध नहीं होता है, पुनः विशुद्ध होता है। यह परमार्थ का लक्षण है " परमार्थ अद्यार्थ है। परिकल्पित और परतन्त्र लक्षणवश यह सत् नहीं है, और परिनिष्पन लक्षणवश यह असत् नहीं है। परिनिष्पर का परिकल्पित और परतन्त्र से एकत्व का अभाव है। इसलिए, यह 'तथा' नहीं है । यह अन्यथा भी नहीं है, क्योंकि परिनिष्पन्न का उनसे अन्यत्व भी नहीं है । परमार्थ का उदय-व्यय नहीं होता, क्योंकि धर्म-धातु अनभिसंस्कृत है । इसकी हानि-वृद्धि नहीं होती, क्योंकि संक्लेश-पक्ष के निरोध अोर व्यवदान-पद के उत्पाद पर यह तदवस्थ रहता है । यह विशुद्ध नहीं होता, क्योंकि प्रकृति से यह असंशिष्ट है, और विशुद्ध भी होता है, क्योकि अागन्तुक उपक्रेश का विगम होता है। अनात्मरधि सब बौद्धवादों के समान. असंग भी श्रात्मदृष्टि-विपर्यास का प्रतिषेध करते है। आत्मदृष्टि का लक्षण अात्मा नहीं है, दुःसंस्थितता भी प्रात्मलक्षणा नहीं है; श्रात्म- दृष्टि परिकल्पित अात्मलक्षण से विलक्षण है, क्योंकि पञ्च स्कन्ध दुःखमय है, और दुःसंस्थितता पुनः पञ्चोपादान-स्कन्ध है। इन दो से,अर्थात् प्रामष्टि और पञ्चोपादान-स्कन्ध से अन्य किसी श्रात्मलक्षण की उपपत्ति नहीं होती, श्रतः श्रात्मा का अस्तित्व नहीं है । यह श्रात्मदृष्टि भ्रममात्र है, अतः श्रात्मा का अभाव है। मोक्ष भी भ्रममात्र का संचय ही है । कोई मुक्त नहीं है। असंग पूछते हैं कि यह क्यों है कि लोग विभ्रममात्र श्रात्मदर्शन पर आश्रित हो यह नहीं समझते कि दुःख की प्रकृति संस्कारों में सतत अनुबद्ध है। जो दु ख का संवेदन नहीं फरता, वह उस दुःख-स्वभाव के ज्ञान से दुखी होता है । जो वेदक है, वह दुःख से दुःखी है । यदि यह दुःखी है, तो इसलिए कि दुःस्त्र अप्रहीय है । यदि वह दुःखी नहीं है, तो इसलिए कि दुखयुक्त श्रात्मा का अभाव है। जब लोग भावों का प्रतीत्यसमुत्पाद प्रत्यन देखते है, जब वे देखते कि उस उस प्रत्ययवश वह वह भाव उत्पन्न होता है, तो उनकी यह दृष्टि क्यों होती है कि दर्शनादिक श्रन्यकारित है, प्रतीत्यसमुत्पन नहीं है। यह कौन सा प्रशान- प्रकार है, जिसके कारण लोग विद्यमान प्रतीत्यसमुत्पाद को नहीं देखते, और अविद्यमान आत्मा