पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६३

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षोडश अध्याय स्वभाव-समता है । सौत्रान्तिक इस वाद में अनेक दोष दिखाते हैं कि लोक सभागता को प्रत्यक्ष नहीं देखता। यह प्रजा समागता का परिच्छेद नहीं करता, क्योंकि सभागता का कोई व्यापार नहीं है, जिससे उसका ज्ञान हो । यद्यपि लोक सत्व-सभागता को नहीं जानता, तथापि उसमें सत्वों के जात्यभेद की प्रतिपत्ति होती है। अतः सभागता के होने पर भी उसका क्या व्यापार होगा १ पुनः निकाय को शालि-ययादि की असत्व-सभागता भी क्यों नहीं इष्ट है। इनके लिए सामान्य प्राप्ति का उपयोग होता है। मायु--इसी प्रकार सौत्रान्तिक अायु को द्रव्य नहीं मानते । उनका कहना है कि यह एक श्रावध, सामर्थ्यावशेष है, जिसे पूर्वजन्म का कर्म प्रतिन्धि-क्षण में सत्व में अाहित करता है। इस सामर्थ्य के कारण एक नियत काल के लिए, निकाय-सभाग के स्कन्ध-प्रबन्ध का अवस्थान होता है। संस्कृत-धर्म के लक्षण--सौत्रान्तिक संस्कृत-धर्म के लक्षणों को भी पृथक् पृथक् द्रव्य नहीं मानते । संस्कृत-धर्म के लक्षण जाति, जरा, स्थिति और अनित्यता हैं । 'स्थितिः उनको स्थापना करती है, 'जरा' उनका हाम करती है, अनित्यता उनका विनाश करती है। यह सर्वास्तिवाद का मा है। किन्तु सौत्रान्तिक कहते हैं कि भगवान प्रदर्शित करना चाहते हैं कि प्रवाह संस्कृत । ये प्रवाह क्षण के तीन-लक्षण नहीं बताते, क्योंकि वे कहते हैं कि यह तीन लक्षण प्रज्ञात होते हैं । वस्तुतः दाण का उत्पाद, जरा और व्यय अप्रज्ञायमान है । जो अप्रज्ञा- यमान है, यह लक्षण होने की योग्यता नहीं रखता। सौत्रान्तिकों के अनुसार उत्पाद या जाति का यह अर्थ है कि प्रवाह का प्रारंभ , व्यय या अनित्यता प्रवाह की निवृत्ति, उपरति है । स्थिति श्रादि से निवृत्ति तक अनुवर्तमान प्रवाह है । स्थित्यन्यथात्व या जरा अनुवर्तमान का पूर्वापरविशेष है । पुनः उत्पाद अभूत्वा-भाव है, स्थिति प्रबन्ध है, अनित्यता प्रबन्ध का उच्छेद है, जरा उसकी पूर्वापर विशिष्टता है । संक्षेप में संस्कृत-धर्म का अभूत्वा-भाव होता है, भूत्वा- अभाव होता है। इन धर्मों का प्रवाह इनकी स्थिति है । प्रवाह का विराहशत्व उनका स्थित्यन्य- यात्व है। उत्पादार्टि द्रव्य नहीं है । मतीसानागतप्रत्युत्पन्न का अवस्तुत्व-सौत्रान्तिक अतीत,अनागत को वस्तु-सत् नहीं मानते। यदि अतीत और अमागत द्रव्य-सत् हैं, तो वह प्रत्युत्पन्न हैं। उनको अतीत और अना- गत क्यों विशेषित करते हैं। सर्वास्तिवादी उत्तर देता है कि यह अप्राप्त-कारित्र, प्रासानुपरत-कारित्र तथा उपरत- कारित्र है, जो धर्म का श्रध्व विनिश्चत करता है । सौत्रान्तिक पूछता है कि धर्म के कारित्र में क्या विन्न है ? धर्म नित्य होते हुए अपना कारित्र सदा क्यों नहीं करता ? क्या विभ उपस्थित होता है, जो कभी यह अपना कारित्र करता है, और कभी नहीं करता ? आपकी यह कल्पना भी युक्त नहीं है कि उसके कारित्र का अभाव प्रत्ययों के असामग्रथ से होता है,क्योकि श्रापके लिए इन प्रत्ययों का भी नित्य अस्तित्व है । पुनः कारित्र अतीतादि कैसे है ? क्या कारित्र का भी दूसरा कारित्र होता है ? इससे अनवस्थादोष होगा। किन्तु यदि कारित्र का स्वरूप सत्तापेक्षया अतीतादित्व है, तो भावों का भी प्रतीतादित्व