पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५१

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पंचदश अध्याय ३१३ हेय-धर्म दुःख धर्म का सभाग-हेतु है । अन्य चार निकायों के धर्मों का नहीं है । दुःख धर्मों में जो काम-धातु का है, वह काम-धातु के धर्म का सभाग-हेतु है .. "एवमादि । वस्तुतः केवल यह धर्म सभाग-हेतु हैं, जो अग्रज हैं । पूर्वोत्पन्न (अग्रज ) अतीत पश्चात् उत्पन्न अतीत सभाग-धर्म का सभाग-हेतु है । पूर्वोत्पन्न, प्रत्युत्पन्न, पश्चात् उत्पन्न, सभाग-धर्म सभाग-हेतु है । अग्रज अतीत-प्रत्युत्पन्न, पश्चात्-उत्पन्न अनागत सभाग-धर्मो का सभाग-हेतु है। किन्तु अनागत-धर्म सभाग-हेतु नहीं है। इस विषय में ऐकमत्य नहीं है। हम ऊपर कह चुके हैं कि स्वभूमि का नियम अनासवधर्मों के लिए नहीं है । नव- भूमिक मार्ग अन्योन्य का सभाग-हेतु है। मार्ग इस अर्थ में नवभूमिक है कि योगी समापत्ति की इन नौ अवस्थानों में अनागभ्य, ध्यानान्तर, चार मूल ध्यान, प्रथम तीन अधर बारूण्य में विहार कर मार्ग की भावना कर सकता है । तुल्प-भूमि-द में मार्ग-धर्म मार्ग-धर्म में सभाग- हेतु हैं। वस्तुत: इन भूमियों में मार्ग अागन्तुक सा है, यह भूमियों के धातुओं में पतित नहीं है। काम, रूपावचर, श्रारूप्याक्चर तृष्णा मार्ग को स्वीकृत नहीं करती। चाहे जिस भूमि का संनिश्रय लेकर योगी मार्ग की भावना करता हो, मार्ग समानजातीय रहता है, अतः मार्ग मार्ग का सभाग-हेतु है। सर्व मार्ग सर्व मार्ग का सभाग-हेतु नहीं होता । जिस भूमि में इसकी भावना होती है, उसका संप्रधारण नहीं करना है किन्तु मार्ग के स्वलक्षणों का विचार करना है। मार्ग सम या विशिष्ट मार्ग का सभाग-हेतु है, न्यून मार्ग का नहीं, क्योंकि मार्ग सदा प्रयोगब है । अतीत या प्रयुत्पन्न दुःखे-धर्म उसी ( प्रथम क्षण) प्रकार की अनागत दान्ति का राभाग-हेतु होता है, तब कार्थमार्ग कारणमार्ग के सम होता है। यह क्षान्ति द्वितीय क्षण का सभाग-हेतु होती है, तब कार्यमार्ग कारणमार्ग में विशिष्ट होता है, ' .वमादि यावत् अनुत्पाद- ज्ञान, जो अपना विशिष्ट न होने से केवल सम मार्ग का सभाग-हेतु हो सकता है। प्रयोगब लौकिक धर्म सम या विशिष्ट धर्मों के सभाग-हेतु हैं, हीन धर्मों के नहीं। प्रायोगिक धर्म श्रुतमय, चिन्तामय, भावनामय है। ये उपपत्तिप्रति-लंभिक धर्मों के प्रतिपक्ष हैं। प्रायोगिक होने से ये हीन के सभाग-हतु नहीं होते। कामावचर श्रुतमय धर्म कामावचर श्रुतमय और चिन्तामय धर्मों के सभाग-हेतु हैं, भावनामय धर्मों के नहीं, क्योंकि काम-धातु में भावनामय का अभाव होता है, क्योंकि कोई भी धर्म स्वधातु के धर्मों का ही सभाग-हेतु होता है । रूपावचर- श्रुतमयधर्म रूपाश्चर-श्रुतस्य और भावनामय धर्मों के समाग-हेतु हैं, चिन्तामय धर्मों के नहीं; क्योंकि इस धार, में जब चिन्तन श्रारंभ करते हैं, तत समाधि उपस्थित होता है। रूपावचर- भावनामय धर्म रूपावचर भावनामय धर्मों के सभाग-हेतु है, रूपावचर श्रुतमय धर्मों के नहीं; क्योंकि यह हीन है, एवमादि । १. संप्रयुक्तक-हेतु-केबल चिन और चैत जिनका अभिन्न श्रा.य है,संप्रयुक्तक हेतु हैं। भिन्न कालज, भिन्न सन्तागज चित्त चैत संपयुफैक-हे नहीं हैं । यथा --चक्षुरिन्द्रिय का एक