पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४४

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(३. ) पहले यजयोग का नाम विशुद्ध-योग है । इसके लिए पहले शून्यता नाम का विमोक्ष प्राप्त करना पड़ता है। शून्यता शब्द से स्वभावहीनता समझनी चाहिये । शन्यता अतीत और अनागत ज्ञेयों से शून्य है। इसका दर्शन शन्यता है । यह गंभीर और उदार है। गंभौर इस लिए कि अतीत और अनागत नहीं है। उदार इसलिए कि अतीत और अनागत का दर्शन है। बिस शान में इस शून्यता का ग्रहण होता है, वही शून्यता-विमोक्ष है । इसे प्राप्त करने पर तुरीय अवस्था का क्षय हो जाता है, और अक्षर महासुख का उदय होता है । करुणा का लक्षण शानवन है। इसी का नामान्तर सहजकाय है, जो प्रज्ञा और उपाय की साम्यावस्था है। इसी का नामान्तर विशुद्ध-योग है। द्वितीय योग का नाम धर्म-योग है। इसके लिए जिस विमोक्ष की अपेक्षा है, उसे श्रनिमित्त कहा जाता है। बुद्ध, बोधि प्रभृति विकल्पमय चित्त ही निमित्त है। जिस शान में इस प्रकार का विकल्प चित्त नहीं होता, उसे ही अनिमित्त-विमोक्ष कहते हैं । इसे प्राप्त कर लेने पर सुषुप्ति दशा का क्षय हो जाता है। नित्य-अनित्यादि दय से रहित मैत्रीरूप चित्त उदित होता है । यह चित्त-वन धर्मकाय नाम से प्रसिद्ध है । यह दो कार्यों का स्फुरण है । वस्तुतः यह जगत् के कल्याण-साधक निर्विकल्पक चित्त से भिन्न और कुछ नहीं है। यह योग भी प्रज्ञा तथा उपाय का सामरस्य है। चित्त-वज्र ही ज्ञानकाय नाम से प्रसिद्ध है। तृतीय योग का नाम मंत्र-योग है। इसके लिए अप्रणिहित नाम का विमोक्ष प्रावश्यक है। निमित्त के अभाव से तर्क का अभाव होता है । वितर्क-चित्त के प्रभाव से प्राणिधान का उदय नहीं होता । इसीलिए यह अपिहित है । अप्रणिधान शब्द से 'मैं संबुद्ध हूँ' आदि आकार का भाव समझा बाता है । इस प्रकार के विमोक्ष से स्वप्न-चय होता है, और भीतर से अनाहत ध्वनि सुन पड़ती है। यही मंत्र या सर्व-भूतप्त नाम से प्रसिद्ध है। मुविता इसी का नामान्तर है। सर्वसवरत से तात्पर्य मंत्र द्वारा सर्वसवों में मोदन (श्रानन्द) का संचार करना है । यही मुदिता का तात्पर्य है । मन का त्राण हो जाता है, यही मंत्र का उपयोग है। यही वाग्वज या संभोग-काय है। प्रज्ञा और उपाय का सामरस्य ही मंत्र-योग है । यह सूर्य स्वरूप है। चतुर्थ योग का नाम संस्थान-योग है। इसके लिए अनभिसंस्कार नाम का विमोच अपेक्षित है। प्रणिधान न रहने से अभिसंस्कार नहीं रहता । श्वेत-रक्त-प्राणायम, विज्ञान ये अभिसंस्कार है। इस विमोक्ष के प्रभाव से विशुद्धि होती है। उससे जाग्रत् अवस्था का क्षय होता है, और अनन्त अनन्त निर्माण कार्यों का स्फुरण होता है। इससे उपेक्षारूप काय-वन का लाभ होता है। रौद्र शान्तादि रूपों से इसका सांकर्य नहीं है । निर्माण-काय या प्रयोपाय का सामरस्य ही संस्थान-योग का रूप है । यह 'कमल-नयन' नाम से प्रसिद्ध है। पूर्वीच विवरण से स्पष्ट है कि चार योगों से चार अवस्थाओं का अतिक्रम होता है। वज्रयोग का मुख्य फल पूर्ण निर्मलत्व या स्वच्छत्व प्रायत्त करना है। तुरीय प्रति चार अवस्याओं में किसी न किसी प्रकार का मल है। जब तक इन मलों का संशोधन न हो तब तक पूर्णव-लाम नहीं हो सकता । तरीय के मल से अभिप्राय रागविशिष्ट इन्द्रिय-इय से है। सुपति