पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३९

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पंचदश अध्याय किसी धर्म की पाति, स्थिति, आदि भी संस्कृत है। अत: इनका उत्पाद, स्थिति, अन्य थाव, व्यय होता है । अता पर्याय से इनके चार लक्षय जाति-जाति, स्थिति-स्थिति आदि होते १, बो मूल धर्म के अनुलक्षण हैं। ये अनुलक्षण भी संस्कृत है। अतः इनमें से एक एक करके चार चार लक्षण होंगे। यहाँ अपर्यवसान दोष नहीं है । जब एक मूल धर्म की उत्पत्ति होती है, तो नौ धमों का सहोत्पाव होता है-मूलधर्म, चार मूललक्षण चार अनुलक्षण । पूर्वोक्त चार मूललक्षण क्या चार अनुलक्षण-जाति-बाति, स्थिति-स्थिति जरा-जरा, अनित्यता-अनिस्यता । मूल बाति से पाठ धर्म बनित होते हैं, किन्तु जाति-जाति से केवल एक धर्म, अर्थात् मूल जाति बनित होती है । इसी प्रकार अन्य मूल लक्षण और अनुलक्षणों की यथायोग्य योजना करनी चाहिये। चार प्रमुखक्षण-लक्षणों के स्वयं लक्षण होते हैं, जिन्हें अनुलक्षण कहते हैं। इनकी संख्या चार होती है, सोलह नहीं; और अनिष्ठा दोष नहीं है । सौत्रान्त्रिकका मतभेद-सौत्रान्तिक लक्षणों को पृथक् पृथक द्रव्य नहीं मानते । वे कहते है कि भगवान गदर्शित करना चाहते हैं कि प्रवाह संस्कृत है । वे प्रवाह-क्षण के तीन लक्षण नहीं बताते, क्योंकि वे कहते है कि यह तीन लक्षण प्राप्त होते है । वस्तुतः अपशायमान है। क्षण का उत्पाद या जाति का अर्थ है-प्रवाह का श्रारंभ। व्यय या अनित्यता प्रवाह की निवृत्ति, उपरति है । स्थिति श्रादि से निवृत्ति तक अनुवर्तमान प्रवाह है । स्थित्यन्यथाव या चरा अनुवर्तमान का पूर्वापरविशेष है। पुनः उत्पाद अभूत्वा-भाव है, स्थिति प्रबन्ध है, अनित्यता प्रबन्ध का उच्छेद है, जरा उसकी पूर्वापर विशिष्टता है । संक्षेप में संस्कृत धर्म का अभूत्वा-माव होता है, भूत्वा-श्रभाव होता है । इन धर्मों का प्रवाह इनकी स्थिति है, प्रवाह का विसदृशत्व उनका स्थित्यन्यथात्व है । उत्पादादि द्रव्य नहीं हैं। सर्वास्तिवादी कहते हैं कि जन्य धर्म की जनक नाति है, किन्तु हेव-प्रत्यय के बिना नहीं; अर्थात् हेतु-प्रत्यय के सामन्य के बिना केवल जाति जन्य धर्म के उत्पाद का सामथ्र्य नहीं रखती। सौत्रान्तिक कहते हैं कि यदि ऐसा है, तो हेतु उत्पाद करते हैं, जाति नहीं । सर्वास्तिवादी कहते है कि रूप में रूप-बुद्धि स्वलचणापेक्षा होती है। किन्तु 'रूप जात है', यह जात-बुद्धि रूपा- पेया नहीं होती, क्योंकि 'वेदना बात है। इस वेदना का जब प्रश्न होता है, तब भी मेरी यही बात-बुद्धि होती है। अत: जाति-बुद्धि रूप-वेदना से अर्थान्तरभूत जाति-द्रव्य की अपेक्षा करती है। सौत्रान्तिक का उत्तर है कि यह वाद आपको बहुत दूर ले जायगा। शून्यता, अनात्मत्व को युक्त सिद्ध करने के लिए आप 'शून्यम्', 'अनामम्' का द्रव्यतः अस्तित्व मानेंगे । पुनः एक दो महत् , अणु, पृथक् , संयुक्त, विभक्त, पर, अपर, सद्पादि बुद्धि की सिद्धि के लिए आप वैशेषिकों के तुल्य एक द्रव्य-परम्परा मानेंगे :--संख्या परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, सत्ता आदि | आपको घट-बुद्धि सिद्ध करने के लिए एक 'घटक परिकल्पित करना होगा।