पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४३३

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पंचवा अध्याय ३५ है। उभय का तादाम्य या अभेद संबन्ध भी नहीं है, क्योंकि दोनों अभिन्न नहीं है। यह सम- वाय संबन्ध है। गुण, कर्म और जाति विषयक जो विशिष्ट शान होता है, उसका विषय समवाय नामक संबन्ध है । वैभाषिकों के अनुसार प्राप्ति यह हेतु है, जो सत्वों का भाव व्यवस्थापित करता है। अवयवों में अवयवी की वर्तमानता श्राश्रयाश्रितभाव है। यह समवायाख्य संबन्ध है। यह इस प्रकार है:--प्राप्ति, अप्राप्ति, सभागता, प्रासंज्ञिक, दो समापत्ति (निरोध-समापत्ति, असजि-समापत्ति ), जीवितेन्द्रिय, लक्षण, नाम कायादि और एवंजातीयक धर्म। सर्वास्तिवादी इनको द्रव्य-सत् मानते हैं। प्राशि-प्राप्ति १. प्राप्ति द्विविध है:-अप्राप्त और विहीन का लाभ ( प्रतिलम्भ), प्रतिलब्ध और अविहीन का समन्वागम ( समन्वय )। २. अप्राप्ति-इसका विपर्यय है । स्यसन्तान-पतित संस्कृत धर्मों की प्राप्ति और अप्राप्ति होती है, पर-सत्व-सन्तति-पतित धर्मों की ही होती; क्योंकि कोई परकीय धर्मों से समन्वागत नहीं होता । असन्तति-पतित धर्मों की भी प्राप्ति-अप्राप्ति नहीं होती, क्योंकि कोई असल्व संख्यात-धर्मों से समन्वागत नहीं होता। असंस्कृत धर्मों में प्रतिसंख्या-निरोध और अप्रतिसंख्या-निरोध की प्राप्ति होती है । सब सत्व उन धर्मों के अप्रति से समन्वागत होते हैं, जिनकी उत्पत्ति प्रत्यय-वैकल्य से नहीं होगी। सकल बन्धनादिक्षणस्थ आर्य और सकल-बन्धन-बद्ध पृथग्जन को छोड़ कर अन्य आर्य और पृथग्जन प्रतिसंख्या से समन्वागत होते हैं। आकाश से कोई समन्यागत नहीं होता, अतः श्राकाश की प्राप्ति नहीं होती । भाषिकों के अनुसार प्राप्ति और अप्राप्ति एक दूसरे के विपक्ष हैं। जिसकी प्राप्ति होती है, उसकी अप्राप्ति भी होती है। सौत्रान्तिक का मतभेद-मौत्रान्तिक प्राप्ति नामक धर्म के अस्तित्व को नहीं मानते। वे कहते हैं कि प्राप्ति की प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, यथा रूप-शब्दादि की होती है, यथा राग- द्वेषादि की होती है । उसके कृत्य से प्राप्ति का अस्तित्व अनुमित नहीं होता, यथा चक्षुरादि इन्द्रिय अनुमान ग्राह्य है। सर्वास्तिवादी कहता है कि प्राप्ति का कृत्य है । यह धर्मों का उत्पत्ति हेतु है। लोभ-चित्त के उत्पादक हेतु इस अनागत लोभ चित्त की प्राप्ति है । सौत्रान्तिक कहता है कि आप जानते हैं कि दो निरोधों की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु ये असंस्कृत हैं, और असंस्कृत अनुत्पाय हैं । केवल 'संस्कृत' हेतु होते हैं। संस्कृत धर्मों के संबन्ध में हमें यह कहना है कि अप्राप्त धर्मों की प्राप्ति नहीं होती । और उन धर्मों की भी प्राप्ति नहीं होती, बो भूमि-संस्कार या वैराग्य के कारण त्यक्त हो चुके हैं। प्रथम की प्राप्ति अनुत्पन्न है । द्वितीय की प्राप्ति निरुद्ध हुई है । अतः इन धर्मों की कैसे उत्पत्ति हो सकती है, यदि इनकी उत्पत्ति का हेतु प्राप्ति है। सर्वास्तिवादी-इन धर्मों की उत्पत्ति में सहज-प्राप्ति हेतु है। सौत्रान्तिक-यदि धर्मों की उत्पत्ति प्राप्ति के योग से होती है, तो बाति और बाति- पाति क्या करते हैं। असत्वाख्य धर्मों की उत्पत्ति न होगी । सकल बन्धन पुद्गलों में मृदु-मध्य- अधिमात्र क्रयों का प्रकार-भेद कैसे युक्त होगा, क्योंकि प्राप्ति का अभेद है। कामावचर क्रेश ४