पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४१

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( ३७ ) अधिक प्रसिद्ध न होने पर भी यह अप्रामाणिक नहीं प्रतीत होता । जैसे प्रागम के गंभीर तचों का उपदेश कैलास आदि के शिखर पर या मेरुशृङ्गादि के उच्च प्रदेश पर शंकरादि गुरुमूर्ति ने शिष्यरूपा पार्वती आदि को किया था, ठीक उसी प्रकार राजगृह के निकटस्थ गृध्रकूट पर्वत पर बुद्धदेव ने अपने जिज्ञामु मकों के समक्ष पारमिता-मार्ग का प्रकाशन किया । प्रभकूट में जिस समय बुद्ध ने समाधि ली उस समय उनके देह से दशों दिशाओं में तेज निःसूत हुआ और सर्व प्रदेश भालोकित हो उठा। मुँह खोलते ही देखा गया कि उसमें अगणित सुवर्णमय सहस्रदल कमल प्रकाशित हुए हैं। उनके देह के प्रभाव से लोक के विभिन्न दुःखों का उपशम हो गया। इस उपदेश का विवरण महाप्रज्ञापारमिताशास्त्र में निबद्ध है। कहा जाता है कि नागार्जुन ने इसकी एक टीका भी लिखी थी। इस प्रन्य के विभिन्न संस्करण विभिन्न समय में संकलित हुए थे। कुछ संस्करणों के कुछ अंशों का भाषान्तर भी हुआ था। अतिप्राचीन काल से ही सर्व देश में इसका प्रचार हुश्रा । महायान में शून्यता, करुणा, परार्थ-सेवा प्रभृांत विषयों का तथा योगादि का विशेष वर्णन उपलब्ध होता है। यह प्रज्ञापारमिता वस्तुतः जगन्माता महाशक्तिरूपा महामाया है। महायान-धर्म के विकास में शाकागम का पूर्ण प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। यह महाशतिरूपा प्रथा बोधिसयों की जननी तो है ही, बुद्धा की भी जननी है । शिव तथा शक्ति में चन्द्र और चन्द्रिका के समान अभेद संबन्ध है, टाक उसी प्रकार बुद्ध और प्रज्ञापारमिता का संबन्ध है। विश्व के दुःस्त्र के निर्माचन-कम म बोधिसत्वगण इसी जननी की प्रेरणा से और सामर्थ्य से असर होते हैं। पारामता तथा मंत्र का यह नय सर्वत्र ही स्वीकृत है। इस महा- शक्ति के अनुग्रह के बिना लोकाथ-सपादन का कार्य नहीं किया जा सकता। पारमिता-नय का लक्ष्य बुद्धत्व-लाम है, और वही मंत्र-नय का भी । पारमिता-नय में अवान्तर भेद भी है। इसका यहाँ विशेष वर्णन नहीं हो सकता । फिर भी इतना कहा जा सकता है कि भ्यान, ध्यान-फल, दृष्टि, करुणा का स्वरूप, तथा त्रिकायविषयक विचारों में दोनों में कहीं-कहीं मतभेद है ! मायोपम अद्वयवाद' का लक्ष्य एक विशेष प्रकार का है, किन्तु सर्वधर्मा. प्रतिधानवाद का लक्ष्य उससे कुछ भिन्न है। उभयत्र पार्शमताओं को प्रति श्रावश्यक है। दोनों ही नयों में साधना के क्षेत्र म योगाचार अयात् योगचर्या का प्राधान्य है । किन्तु दोनों के योग में परस्पर भेद है । दाना वान बोधिसत्व-यान है। पारमिता-नय में करुणा, मैत्री आदि की चर्या प्रधान है। माध्यमिक तथा योगाचार दोनों संप्रदायों में पारमिता-नय का समा- दर था। नागार्जुन का प्रवर्तित माध्यमिक-मत कालिक दृष्टि से कुछ प्राचीन है। इसका उद्भव- क्षेत्र वही है, जहाँ मंत्र-नय का उद्भव माना झाला है । श्राधान्यकरक नामक यह स्थान दक्षिण म अमरावता के निकट है । तोत्रि साधना के इतिहास में श्रीशैल या श्रीपर्वत का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह ज्योतिलिङ्ग मल्लिकार्जुन का क्षेत्र है । बौद्ध तांत्रिक संप्रदाय के विश्वास के अनुसार भगवान् बुद्ध ने धान्यकटक में मंत्र-नय का तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। नागार्जुन के कुछ समय बाद असंग का काल है। योगाचार संप्रदाय के इतिहास प्रसिद्ध प्रवर्तक प्रसंग