पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३९

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अल्प है। बावस्था अनन्त ज्ञान की अवस्था है, इसीलिए प्राचार्यों ने इस शान को बोषि न कहकर महाबोधि कहा है। इस अनन्त ज्ञान के साथ अनन्त करुणा मी रहती है। सवार्थ- क्रिया या परार्यापादन का भाव, यही बुद्धों का बीज है । यही दुसत्व-लाम का प्रधान कारण है। निर्वाण या स्वदुःखनिवृत्ति में लीन न होकर निरन्तर जीव-सेवा में निरत रहना बोधिसत्त्व के बीवन का श्रादर्श। इसी श्रादर्श को लेकर बोधिसत्व बुद्धत्व का लाम कर सकते हैं। महाभावक सोपधि तथा निरुपघि बोधि का लाभ कर सकते हैं, किन्तु प्रक्षा में तीन करुणा का समावेश नहीं है। इसी से यह संसार से प्रस्त होते हैं। जो यथार्थ कारपिक है वह दुःख-भोग करते घबराते नहीं, क्योंकि उनके दुःख-भोग से दूसरों के दुःखों का उपशम होता है। ये महाभावक अपने अपने श्रायुष्य-संस्कार के क्षीण होने के कारण निर्वाण न पाने पर भी प्रदीप-निर्वाणवत् धातुक जन्मो से मुक्त हो जाते हैं, और मरणोत्तर परिशुद्ध बुद्ध-क्षेत्र में अर्थात् अनासव-धातु में समाहित होकर कमल के पुट में जन्म लेते हैं। मातृ-गर्भ में उनका पुनः प्रवेश नहीं होता। अमिताभ प्रभृति संबुद्ध-सूर्य इस कमलयोनि में समाधिस्थ सत्वों को अपनी किरण से अक्लिष्ट तम के नाश के लिए, प्रबोधित करते हैं। इस समय यह गतिशील होते है और क्रमशः बोधि-संभार ( पुण्य तथा ज्ञान ) का मंचय करते हुए जगद्गुरु का पद प्राप्त करते हैं । यह सब अागम की बात है। श्रावक-यान में मुख्य मोक्ष नहीं होता। इसका सदर्मपुण्डरीक, लंकावतार, धर्ममेषस्त्र, नागार्जुन के उपदेश श्रादि में सर्वत्र प्रतिपादन है। इसके लिए ये लोग क्रमशः महायान में आकृष्ट होते हैं और उसमें पाकर मुक्त हो जाते हैं। भावकों का यह विश्वास अवश्य है कि उनके संप्रदाय में ही बोधि-लाभ करने से निर्वाण-प्राप्त हो जाता है, किन्तु वस्तुतः वह निर्वाण नहीं है, त्रिलोक से निर्गममात्र होता है। किसी का यह भी कहना है कि एक यान का उपदेश नियत-गोत्र के लिए है। किसी का आकर्षण किया जाता है और किसी का धारण । बो यथार्थ में महायानी है, वह पहले ही प्रमुदिता-भूमि को प्राप्त कर कम से अनुत्तर-बोधि का लाभ करता है। केवल शुद्ध बोधि से महाबोधि का लाभ नहीं होता, उसके लिए भगवत्ता से योग होना आवश्यक है। पारमिता-संभार के पूर्ण न होने तक भगवत्ता का उदय नहीं होता। बोधिसत्त्व चरमजन्म में पारमिता पूर्ण करके भगवान् हो जाते हैं, किन्तु बुद्ध नहीं होते। कोई भगवत्ता के साथ बुद्ध भी होते हैं। यही भगवान बुद्ध है। बोधि और भगवत्ता की दो भिन्न- मिन्न धाराएँ । । बोधि की धारा में बुद्धत्व है, किन्तु संबुद्धस्त्र नहीं है, क्योंकि दूसरे के प्रति करणा नहीं है, इसलिए महाबोधि भी नहीं है। महाबोधि का लाभ तब तक नहीं होगा, जब तक निखिल विश्व को अपना समझकर करुणा-विगलित-भाव से उनकी सेवा न की पाय । सेवा-कर्म चर्या है, बोधिभाव प्रशा है। एक प्राश्य में दोनों के युगपत् अवस्थान से दुखत्व और भगवचा का अभेद से प्रकाश होता है। यही मानव जीवन का चरम भादर्श है, वही डर की भगक्चा है।