पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८४

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चौर-धर्म-दर्शन हटान्त संस्कृत के लक्षणों से विनिमुक्त पदार्थ 'असंस्कृत' है, किन्तु आर्यत्व राग का अभाव है, और मार्ग-जनित है ! यह 'संस्कृत' है, अत: दो में विशेष करना चाहिये : १. निर्वाण राग-क्षय है, उस क्लेश से भिन्न एक धर्म है, जिसका यह क्ष्य करता है, उस मार्ग से अन्य है, जो निर्वाण का प्रतिपादन करता है। २. अर्हत्व निर्वाण नहीं है, किन्तु निर्वाण का लाभ है । निर्वाण का त्रिविध आकार है :-विराग-धातु, प्रहाण-धातु, निरोध-धातु, [ कोश ६७६,७८]। आर्य निर्वाण का उत्पाद नहीं करता ( उत्पादयति ), वह उसका साक्षात्कार करता है ( साक्षीकरोति); वह उसका प्रतिलाम करता है ( प्राप्नोति )। मार्ग निर्वाण का उत्पाद नहीं करता; यह उसकी प्राप्ति का उत्पाद करता है । निर्वाध के अन्य प्रकार निर्वाण सुख है, शान्त है, प्रणीत है । जो उसे दुःखवत् देखता है, उसके लिए मोक्ष संभव नहीं है [अंगुत्तर ४४४२] अभिधर्मकोश [७११३ ] में इन साकारों का वर्णन है। मिलिन्धप्रश्न में है कि निर्वाण-धातु 'अस्थिधम्म' ( अस्तिधर्म), एकान्तसुख, अप्रतिभाग है। मिलिन्द पुनः कहते है कि उसका लक्षण 'स्वरूपतः' नहीं बताया जा सकता, किन्तु 'गुणत:' के रूप में कुछ कहा जा सकता है, यथा जल पिपासा को शान्त (निबापन ) करता है, उसी प्रकार निर्वाण त्रिविध तृष्णा का निरोध करता है । सदंग-निर्वाण निर्वाण एक, नित्य, अविपरिणामी है; किन्तु कोई एक क्लेश के क्षय का लाभ करते है, अर्थात् उस क्लेश के प्रति निर्वाण का अधिगम करते हैं । यह 'तटंग-निब्बान है । अंगुत्तर [४४१०] में इसका व्याख्यान है । सर्वास्तिवादी निर्वाण का लक्षण निरोध, विसंयोग बताते है। यह एक द्रव्य है, जिसकी प्राप्ति योगी को होती है। जितने क्लेश है, उतने विसंयोग है। विसंयोग की प्राप्ति केवल अार्यों के लिए नहीं है । जो एक क्लेश से विरक्त है, वह इस क्लेश के प्रति निर्वाण का लाभ करता है। दो निर्वाच-बात दो निर्वाणों में विशेष करते हैं। यह इस प्रकार है :-स-उपादिसेस, अनुपादिसेस या सोपधिसेस, निरुपधिमेस । उपादि (= उपादान ) प्रायः उपादान-स्कन्ध के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पहला स्कन्ध-सहगत निर्वाण है, दूसरा स्कन्ध-विनिमुक है। पहले में राग क्षीण हो चुका है, किन्तु स्कन्ध है। इसे स-उपादि' कहते हैं। जब बहत् का मरण होता है, तब वह द्वितीय निर्वाण प्रवेश करता है। यह निश्चित नहीं है कि यह निरूपण सबसे प्राचीन है। शरवात्स्की का मत पुसे के मत का हमने विस्तार से वर्णन किया है। शरवास्की ने 'कन्सेशन श्राफ बुद्धिष्ट निर्वाणा में इस मत का खण्डन किया है । पुसे ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि