पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५८

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बौन-धर्म-दर्शन की अवस्था है। तब इसकी 'अनुशयः श्राख्या होती है। अनुशय अणु होते हैं, यह छिद्रान्वेषी शत्रु के सदृश प्रतिष्ठा-लाभ करते हैं। राग, प्रतिघ श्रादि अनुशय हैं। कदाचित् नेश पर्यवस्थित होता है, अर्थात् सत्व ब्लेश से परेत होता है। यह क्लेश का दूसरा प्राकार है। यह क्लेश की तीवावस्था है। शानुशय पर्यवस्थित नेश का निष्यन्द-फल है। पर्य- वस्थान की अवस्था में जो क्लेशानुशय तथा बाह्य-विषय इष्ट विषय-राग के पर्यवस्थान का समुत्थान करता है, और अयोनिशो-मनसिकार की अपेक्षा करता है। विपाक-फल विपाक के बल को क्षीण करता है, किन्तु निष्यन्द-फल का स्वभाव ऐसा है कि इसका स्वतः अन्त नहीं होता। अकुशल चित्तों के निष्यन्द-फल का समुच्छेद भार्य-मार्ग की भावना और स्रोतापत्ति- फल के प्रतिलाम से होता है। कुशल नित्तों के निष्यन्द-फल का निरोध केवल निर्वाण में होता है। प्रत्येक सत्व जो यत्किंचित् गति में उत्पन्न होता है ( प्रतिन्धि, उपपत्ति ) जन्म क्षण में स्वभूमि के अनुकूल सर्व लश से-राग, द्वेष, मोह से-क्लिष्ट होता है, इसका कारण यह है कि अपने पूर्वजन्म के अन्तकाल में उसका चित्त इन क्लेशों से क्लिष्ट था । जो कामधातु में उत्पन्न होता है, उसका चित्त द्वैप, गन्ध-रस के लोभ और मैथुन-राग से समन्वागत होता है। इसी कारण इस चित्त का निश्चय वह सेन्द्रिय शरीर होता है , जो इन विविध तृष्णाओं और द्वेव-समुस्थित दुःख का वहन कर सकता है । किन्तु कुराल-मूल से सम- न्वागत होने के कारण वह स्वभूमिक लंश का नाश कर सकता है। मान लीजिये कि एक भिक्षु है, जो मरण-काल में द्वेष और सर्व प्रकार के औदारिक राग से मुक्त है। ऐसा भिक्षु केवल ऐसे ही धातु में उत्सन्न हो सकता है, जहाँ धाग्गेन्द्रिय और जिहां-द्रय का अभाव है । यदि इस भिन्नु का राग प्रथम ध्यान के सुख में है, तो मरण-काल में उसका चिन दन सुखो से शिष्ट होगा, और वह प्रथम ध्यान-लोक में उपपन्न होगा। महामालुक्य-सुत्त [ मझिमनिकाय १।४३२ ] में है कि-हे मालुक्यपुत्त ! दहर- कुमार के सत्काय भी नहीं होता तो फिर उसके सहकाय-दृष्टि कैसे उत्पन्न होती है; उसके धर्म भी नहीं होते तो फिर धर्म में उसकी विचिकित्सा कैसे होती है। उसके शॉल भी नहीं होते तो फिर शीली में शालव्रत-परामर्श कैसे होता है; उमके काम भी नहीं होने तो फिर कामच्छन्द कैसे होता है । भगवान् कहते है कि इसका कारण यह है कि उसमें कंशानुशय है। हम उन विपाक-फलों का विचार करते हैं, जिनका कि मनुष्य परिंभोग करते हैं । नारक दुःखी होते हैं, देव केवल सुख का भोग करते हैं। मनुष्य वर्ण, मत्ति, सौन्दर्य, श्रायुष्य, सुख-दुःख में विविध होते हैं। वह सुख से सर्वथा विरहित नहीं होते, किन्तु रोग और बरा के अधीन है। देव शुक्र-कर्म के फल का भोग करते हैं, नारक कृष्ण-कर्म के फल का भोग करते हैं, और मनुष्य शुक्ल-कृष्ण-कर्म का भोग करते हैं। मनुष्य-जन्म का प्रक्षेपक शुद्ध कर्म होता है,