पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३५७

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अयोदरा अध्याय २९६ होते है, तथापि वह गुरु कर्म से आहित सामर्थ्य है, जो अन्तिम चित्त को विशिष्ट करता है। गुरु कर्म के अभाव में श्रासन्न कर्म से श्राहित सामर्थ्य, उसके अभाव में अभ्यस्त कर्म से श्राहित सामर्थ्य, उसके प्रभाव में पूर्वजन्म-कृत कर्म से श्राहित सामर्थ्य, अन्तिम चित्त को विशिष्ट करता है। राहुल का एक श्लोक यहाँ उदाहृत करते हैं :-गुरु, अासन्न, अभ्यस्त, पूर्वकृत-यह चार इस सन्तान में विपच्यमान होते हैं। इसीलिए बौद्धों में मरण-काल में विविध अनुष्ठान करते हैं, और उपदेश आदि देते है। वस्तुत. जैसा बुद्ध ने कहा है-कर्म-विपाक दुर्शय है। नियन्द-फवा हेतु सदृश धर्म निष्यन्द-फल है। कोई धर्म शाश्वत नहीं है। वर्ण केवल वर्ण-क्षण का सन्तान है; विज्ञान केवल चित्तसंतति है। प्रत्येक धर्म के अस्तित्व का प्रत्येक क्षण नो पूर्व-क्षण के सदृश या कुछ तुल्य है, इस क्षण का निभ्यन्द है। इस प्रकार स्मृति का व्याख्यान करते है-चित्त-संतति में श्राहित एक भाव अपना पुनरुत्पाद करता है । प्रायः एक कुशल-चित्त एक दूसरे कुशल-चित्त का निष्यन्द-फल होता है । यह साथ ही साथ कुशल मनसिकार-कर्म का पुरुषकार-फल भी है । सूत्र में उक्त है :-अभिध्या, व्यापाद और मिथ्यादृष्टि; भावित, सेवित, बहुलीकृत होने से नारक, तिर्यक् , प्रेत उपपत्ति का उत्पाद करते हैं । ( यह अभिध्या-कर्म, व्यापाद-कर्म और उस मानस-कर्म के, जिससे तीथिक मिथ्यादृष्टि में अभिनिविष्ट होता है, विषाक-फल है ) । यदि लोभी, हिंसक और मिथ्याष्टि-चरित पुद्गल पूर्व-शुभ-कर्म के विपाक के लिए अपरपर्याय में मनुष्य जन्म प्राप्त करता है, तो वह सतृष्ण, दुष्ट और मूढ़ होगा। लोभ, द्वेष, मोह-चरित पुद्गल लोभ, द्वेष, मिथ्याष्टि का निष्यन्द-फल है। वस्तुतः यह कहना दुष्कर है कि कर्म का निष्यन्द-फल होता है। कर्म कर्म का उत्पाद नहीं करता। कोई कर्म ऐसे फल का उत्पाद नहीं करता, जो उसके सर्वथा सदृश हो । अभिध्या एक अवद्य है, चित्त का एक अकुशल-कर्म है, जो स्वीकृत होता है। यह कर्म नहीं है, तथापि मनोदुधरित है । दान्तिक ( एक प्रकार के सौत्रान्तिक ) इसे मनस्कर्म मानते हैं, किन्तु वैभाषिक कहते है कि इस पक्ष में क्लेश और कर्म का ऐक्य होगा। दुश्चरित होने से परस्व के स्वीकरण की विषम स्पृहा नारकादि विपाक प्रदान करती है। अभिध्या, व्यापाद और मिथ्यादृष्टि सामान्यतः काय-वाक्-कर्म के समुत्थापक है। अभिध्या के स्वीकृत होने से वह अपने बल की वृद्धि करती है, और चित्त-सन्तान में दृढ़ स्थान का लाम करती है। इससे जब यह वाक्-काय-कर्म में व्यक्त होती है, तब चित्त-सन्तान को वासित करती है। अतः अभिध्या का निष्यन्द-फल अभिध्या है, अभिध्यारितत्व है। इसी प्रकार व्यापाद और मिथ्यादृष्टि को समझना चाहिये । सर्व श-राग-द्वेष और मिथ्याष्टिके दो श्राकार होते हैं। कदाचित् यह सुप्ता- वस्था में होता है। तब इसका प्रचार सूक्ष्म और दुर्विज्ञेय है । यह क्रय के समुदाचार के पूर्व