पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४३

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प्रयोदशमण्याय बन्धक है। इसी प्रकार जिसका व्यवमाय वध करना है, वह सदा प्राणातिपात का प्रविशप्ति-कर्म करता रहता है। भितु की अविशन्ति 'संवर' है, बधिक की अविज्ञप्ति 'असंवर' है। व्रत-समादान से 'संवर का ग्रहण होता है। प्राणातिपात की जीविका होने से असंघर का ग्रहण होता है । अथवा यदि कोई 'असंवरस्थ के कुल में जन्म लेता है, या यदि प्रथम बार पापकर्म करता है तब असंवर का ग्रहण होता है। इसके लिए, कोई विधिपूर्वक असंबर का ग्रहण नहीं करता । मदा पाप- क्रिया के अभिप्राय से कर्म करने से असंघर का लाभ होता है। क्या कोई बिना कायिक वा वाचिक कर्म के, बिना किसी प्रकार का विज्ञापन किये, मृषावादावद से स्पृष्ट हो सकता है ? हाँ; भिन्न भिन्न-पोषध ( उपवारा ) में तूष्णीभाव से मृपावादी होता है। वस्तुतः भिन्नु सरोषध में विनयधर प्रश्न करता है---"क्या आप परि- शुद्ध है ? यदि भिक्षु की कोई आपत्ति ( दोप) है, और वह उसे अाविष्कृत नहीं करता, और तूष्णीभाव से अधिधासना ( अनुमोदन ) करता है, तो वह मृपावादी होता है । किन्तु भिक्षु क र वाक् से पराक्रम ( अाक्रमण, मारण) नहीं करता, इसलिए, विशप्ति नहीं है, और कायावचरी अविज्ञप्ति वहाँ नहीं हो सकता जना विज्ञप्ति का अभाव है। इसका समाधान होना चाहिए। संघभद्र समाधान करते हैं। वह कहते हैं कि अपरिशुद्ध भिक्षुसंघ में प्रवेश करता है, बैठता है, अपना ईपिथ कल्पित करता है। यह उसकी पूर्व विज्ञप्ति है। यह कायिक- विज्ञप्ति मृपावाद की वाक्-अविज्ञप्ति का उत्पाद उस क्षण में करती है, जिस क्षण में वह उस स्थान पर खड़ा होता है। केवल चेतना ( प्राशय ) और कर्म ही सकल कर्म नहीं है। कर्म के परिणाम का भी विचार करना होगा। इसमे एक अपूर्व कर्म, एक अविज्ञप्ति होती है । अतः दान का पुण्य दो प्रकार का है :--वह पुण्य जो त्यागमात्र से ही प्रसूत होता है ( त्यागान्वय-पुण्य ), और वह पुण्य जो प्रतिग्रहीता द्वारा दान-वस्तु के परिभोग से संभूत होता है ( परिभोगान्वय-पुण्य ) । एक सत्व भिन्नु को दान देता है। चाहे वह भिन्तु उस दान- वस्तु का परिभोग न करे, चाहे वह दिए, अन्न को न खाये; तथापि सत्य का त्याग-~-जो विज्ञप्ति है, पुण्य का प्रसव करता है। चैन्य को दिया दान त्यागान्वय-पुण्य है। इसी प्रकार मैत्री ब्रह्मविहार में किसी की प्रीति नहीं होती, और न किसी पर अनुग्रह होता है, तथापि मैत्री- चित्त के बल से वागान्वय-पुण्य प्रसूत होता है। किन्तु यदि भिन्नु दान-वस्तु का परिभोग करता है, और उससे उपकृत हो उसमें समापत्ति में प्रवेश करने की शक्ति उत्पन्न होती है, तो इससे एक अविज्ञप्ति का उत्पाद होता है, जिसका पुण्य दानकृत अनुग्रह की मात्रा के अनुसार होता है।