पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४०

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२५२ मौद-धर्म-दर्शन प्रयोग अर्थात् यह प्राशय कि मैं इस इस कर्म को करूँगा ( यह शुद्ध चेतना है। सूत्र इसे चेतना-कर्म कहता है । यहाँ चेतना ही कर्म है)। मौल प्रयोग-वदनन्तर पूर्व कृत संकल्प के अनुसार कर्म करने की चेतना का उत्पाद होता है। काय के संचालन या वाग-ध्वनि के निःसरण के लिए यह चेतना होती है । इस चेतनावश वह प्रयोग करता है । यथा-एक पुरुष पशु के मारने की इच्छा से अपने शयन से उठता है, रजत लेता है, आपण को जाता है, पशु की परीक्षा करता है, पशु का क्रय करता है, उसे ले जाता है, घसीटता है, उसे अपने स्थान पर लाता है, उसके साथ दुर्व्यवहार करता है । यह शस्त्र लेकर पशु पर एक बार, दो बार प्रहार करता है । जब तक कि वह उसको मार नहीं डालता तब तक वध (प्राणातिपात ) का प्रयोग रहता है । मौल कर्मपथ-जिस प्रहार में यह पशु का वध करता है, अर्थात् जिस क्षण में पशु मृत होता है, उस क्षण की जो विज्ञप्ति ( काय-कर्म ), और उस विशप्ति के साथ उत्पन्न को अविचति होती है, वह 'मौल कर्मपथा है। विज्ञप्ति से संभूत शुभ-अशुभ रूप 'अविज्ञप्ति' है । सौत्रान्तिकों का कहना है कि जब वध के लिए नियुक्त पुरुप वध करता है, तब यह न्याय है कि प्रयोक्ता की चित्त-सन्तति में एक सूक्ष्म परिणाम-विशेष होता है, जिसके प्रभाव से यह सन्तति भविष्य में फल की अभिनिष्पत्ति करती है। दो कारणों से वह प्राणातिपात के पाप से स्पृष्ट होता है-प्रयोगतः और प्रयोग के फलपरिपूरितः । पृष-वध से उत्पन्न अनन्तर के अविशति-क्षण 'पृष्ट' होते हैं; विज्ञप्ति-क्षण की सन्तति भी 'पृष्ट होती है । यथा पशु के चर्म का अपनयन करना, उसे धोना, बौलना, बेचना, पकाना, खाना, अपना अनुकीर्तन करना । 'प्रयोग' पूर्व कृत संकल्प और उसके अनुसार कर्म करने की चेतना का उत्पाद है। यह स्वयं दूसरों का अपकारक है। वधिक पशु का वध करने के पूर्व उसको पीड़ा पहुँचाता है। 'प्रयोग' प्रायः गरिष्ट अवय से परिपूर्ण होता है । यथा--एक पुरुष काम-मिथ्याचार की दृष्टि से स्तेय (अदत्तादान ) या वध करता है। 'पृष्ठ' मौल कर्मपथ का अनुवर्तन करता है । इसका महत्व है । यदि मैं हत शत्रु के विरुद्ध भी दंष करूँ तो मैं द्वेषभाव की वृद्धि करता हूँ। जब 'पृष्ट' का सर्वथा अभाव रहता है, तब मौल कर्म का स्वभाव बदलता है । यदि मैं दान देकर पश्चात्ताप करूँ, तो मेरे दान के पुण्य- परिमाण में कमी होती है। प्रयोग और मौल-कर्म प्राणातिपात कर्मपथ के लिए. मृत्यु होना आवश्यक है । यदि मैं वध की इच्छा से किसी पक्ष का उपधात करता हूँ किन्तु वह मृत नहीं होता, तो प्राणतिपात नहीं है। जिस प्रहार से तत्काल या पश्चात् मृत्यु होती है, वह प्रहार प्राणातिपात के प्रयोग में समिलित है । जिस क्षण में पशु मृत होता है, उस क्षण की जो विचति और उस विज्ञप्ति के साथ उत्पन्न जो अविप्ति होता है, वह मौल कम-पथ है । अतः यादे मैं इस प्रकार प्रहार करूँ, जिसमें