पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३१

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द्वादश अध्याय २४३ यदि बट-बीज में स्वयं बट-वृक्ष की वर्ण-संस्थान-रूपता नहीं है, तो अन्यत्र कहाँ से वह पायेगी ? उसे यदि ईश्वर उत्पन्न करता है, तो वह बीजातिरिक्त से उत्पन क्यों नहीं करता ? इसलिए स्वीकार करना पड़ेगा कि वृन-बीज में निहित वृक्ष-संस्थान आविर्भूत होता है, जैसे प्रदीप से अन्धकार स्थित बालदारक । इसी प्रकार कुलाल के द्वारा मृरिपएड से ही संस्थान प्राविर्भूत होता है। कुलाल-पुरुष केवल साक्षीरूप से ही उसका उपयोक्ता बनता है, जैसे पुरुषों की भोग-सिद्धि के लिए प्रधान की प्रवृत्ति तथा सामाजिकों के लिए नट की रंग-क्रिया । इस प्रकार सुखाद्यार्थित्वरूपेण सकल की कारणता । इसी से का परिसमाप्ति है । ईश्वर की आवश्यकता नहीं। अनात्म-वाद अनात्म-वाद को पुद्गल-प्रतिषेध-वाद भी कहते हैं। बौद्ध आत्मा या पुद्गल को वस्तुसत् नहीं मानते । आत्मा नाम का कोई पदार्थ स्वभावतः नहीं है । जो श्रात्मा अन्य मतों को इष्ट है वह स्कन्ध-सन्तान के लिए प्रशस्तिमात्र नहीं है, किन्तु वह स्कन्ध व्यतिरिक्त वस्तुसत् है । प्रात्मयाह के बल से क्लेशों की उत्पत्ति होती है। वितथ ग्रामदृष्टि में अभिनिवेश होने से मतान्तर दूषित है, अतः बौद्ध-मत से अन्यत्र मोक्ष नहीं है । केवल बुद्ध ही नैरात्म्य का उपदेश देते हैं। श्रात्मा के अस्तित्व की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती, न प्रत्यच प्रमाण से, न अनुमान प्रमाण से । यदि अन्य भावों के समान श्रात्मा का पृथक् सद्भाव है, तो इसकी उपलब्धि या तो प्रत्यक्ष ज्ञान से होनी चाहिये-जिस प्रकार पंचेन्द्रिय-विज्ञान तथा मनोविज्ञान के विषयों की उपलब्धि होती है, अथवा अनुमान शान से होनी चाहिये, यथा:-अदृश्य अतीन्द्रिय उपादाय-रूप की होती है। बौद्धों में वात्सीपुत्रीय भी पुद्गल-वादी हैं। वह कहते हैं कि आत्मा न स्कन्धों से अभिन्न है, और न मिन है। वह ऐसा इसलिए कहते हैं, कि यह प्रकट न हो बाय कि वह तीर्थकों के सिद्धान्तों में अभिनिवेश रखते हैं। वात्सीपुत्रीय सौगतम्मन्य है। यथा सांख्य, वैशेषिक, निम्रन्थ आदि पुद्गल में प्रतिपन्न है, उसी प्रकार वात्सीपुत्रीय भी इस कल्पित धर्म में प्रतिपन है। पुद्गल का कारित्र नहीं है। केवल चित्त का कारित्र है । यदि पुद्गल भाव है, तो उसे स्कन्धों से अन्य कहना चाहिये, क्योंकि उसका लक्षण भिन्न है । यदि वह हेतु-प्रत्यय से जनित है, तो उसका शाश्वतत्व और अविकारित्व नहीं है। यदि वह असंस्कृत है, तो उसमें अर्थक्रिया की योग्यता नहीं है, और उसका कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिए पुद्गल को द्रव्य-विशेष मानना व्यर्थ है । बात्सीपुत्रीय कहते हैं। हम नहीं कहते कि यह द्रव्य है, और न यह कि यह स्कन्धों का प्रयतिमात्र है, किन्तु पुद्गल-प्रज्ञप्ति का व्यवहार प्रत्युत्पन्न प्राध्यामिक उपात्त स्कन्धों के लिए है। लोक-विश्वास है कि अग्नि न इन्धन से अनन्य है, न अन्य । यदि अम्मि इन्धन से अन्य होती, तो प्रदीप्त अग्नि होती । हमारा मत है कि पुद्गल स्कन्धों से न अनन्य है, और