पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१६

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क्योंकि यह मालूम होता है कि भगवान् ने अविद्या के हेतु और बरा-मरण के फल को शापित किया है । लेश से अन्य क्लेश की उत्पत्ति होती है; यथा-तृष्णा से उपादान । केश से कर्म की उत्पत्ति होती है; यथा-संस्कारों से विशान, भव से जाति । वस्तु से वस्तु की उत्पत्ति होती है; यथा--विज्ञान से नाम-रूप, नाम-रूप से पडायतन इत्यादि । वस्तु से प्लेश की उत्पत्ति होती है; यथा-वेदना से तृष्णा । अंगों का यह नय है । यह स्पष्ट है कि अविद्या का हेतु केश या वस्तु है। यह स्पष्ट है कि जरा-मरण (विशान से वेदना पर्यन्त शेष वस्तु ) का फल शोश है। एक सूत्र ( सहेतु-सप्रत्यय-सनिदान-सूत्र ) में कहा है कि अविद्या का हेतु 'अयोनिशोमनसिकार है। एक दूसरे सूत्र में कहा है कि अयोनिशोमनसिकार का हेतु अविद्या है । अतः अविद्या निर्हेतुक नहीं है और अंगान्तर के उपसंख्यान का भी कोई स्थान नहीं है । अनवस्था-प्रसंग भी नहीं है, क्योंकि अयोनिशोमनसिकार बो अविद्या का हेतु है, स्वये मोह-संशा से प्रशप्त अविद्या से उत्पन्न होता है। विशुद्धिममो में अविद्या की श्रादिकोटिता के सम्बन्ध में विचार किया है। इस प्रकार अंगों का निर्देश परिपूर्ण है। वस्तुतः सन्देह इस पक्ष के जानने में है कि इहलोक परलोक से कैसे संबन्धित होता है, परलोक इहलोक से कैसे संबन्धित होता है ? सूत्र को केवल इतना ही अर्थ विवक्षित है । इस अर्थ को पूर्व ही कहा है---"पूर्वान्त, अपरान्त और मध्य के संमोह की विनिर्वृति के लिए। 1. विशुदिममगो, ३६८- अविधा को आदि में क्यों कहा? क्या प्रकृतिवादियों की प्रकृति के समान अविद्या भी लोक का मूल कारण है और स्वयं अकारण है ? मह अकारण नहीं है; क्योंकि सूत्र [ मज्झिम० १५४ ] में कहा है कि- अविद्या का कारण प्रास्त्रव है (पानवसमुदया अविजासमुदयो)। किन्तु एक पर्याय है। जिससे अविधा मूल कारण हो सकती है। अविधा दरम-कथा के शीर्ष में है । भगवान् वर्म-कथा के कहने में दो धर्मों का शोर्षभाव बताते हैं। अधिधा और भव-तृष्णा । "हे भिक्षुमी ! अविधा की पूर्व-कोटि नहीं जानी जाती । हम यह नहीं कह सकते कि इसके पूर्व अधिया न थी और पश्चात् हुई। हम केवल यह कह सकते हैं कि अमुक प्रस्थयवश अविद्या उत्पन्न होती है।" पुनः भगवान् कहते हैं- "भव-तृष्णा की पूर्व-कोटि नहीं जानी जाती । केवल इतना कह सकते हैं कि इस प्रस्थय के कारण भव-तृष्णा होती है। [1] इन दो धर्मों को शीर्षस्थान इसलिए देते हैं, क्योंकि यह यो सुगतिगामी और दुर्गतिगामी कर्म के विशेष हेतु है। दुर्गतिगामी कर्म का विशेष हेतु अविद्या है, क्योंकि अविया से अभिभूत पृथगजन प्राणातिपासादि अनेक प्रकार के दुर्गतिगामी कर्म का प्रारंभ करता है। सुगतिमामी कर्म का विशेष हेतु भव-तृष्णा है, क्योंकि इससे अभिभूत पृथगजन सुगति की प्राप्ति के लिए सुगतिगामी अनेक कर्म करता है। कहीं एक धर्म मूनक देशना है,कही उमपमूलक है।