पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३१०

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१२२ इन्द्रिय, मन, वेदना,बुद्धि यह पदार्थ-समूह (अर्थ-जात) है, जिसके विषय में अहंकार होता है। जीव शरीरादि पदार्थ-समूह को 'मैं हूँ। यह निश्चित कर शरीरादि के उच्छेद को प्रात्मोच्छेद मानता है । वह शरीरादि की चिर-स्थिति के लिए व्याकुल होता है और बार बार उसका ग्रहण करता है । उसका ग्रहण कर जन्म-मरण के निमित्त यनशील होता है। किन्तु जो दुःस्त्र को, दुःखायतन को तथा दुःखानुपक्क सुख को देखता है कि यह सब दुःख है (सर्वमिदं दुःखमिति पश्यति ), वह दुःख की परिज्ञा करता है। परिज्ञात दुःख प्रहीण होता है । इस प्रकार वह दो को और कर्म को दुःख-हेतु के रूप में देखता है; तथा दोषों का प्रहाण करता है। दोषों के प्रहीण होने पर पुनर्जन्म के लिये प्रवृत्ति नहीं होती। इस प्रकार प्रमेयों का चतुर्विध विभाग कर अभ्यास करने से सभ्यग्-दर्शन अर्थात् यथार्थभूत अवबोध या तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति होती है। वैशेषिकशास्त्र में पदार्थों के तत्वज्ञान से निःश्रेयस की सिद्धि होती है । वैशेषिकशास्त्र के अनुसार [१,१,४] यह तत्वज्ञान द्रव्यादि पदार्थों के साधर्म्य-वैधओं के जान से उत्पन्न होता है । साधर्म्य, समान-धर्म; और वैधये, विरुद्ध-धर्म है; अर्थात् पदार्थों के सामान्य और विशेष लक्षण (अनुगत-धर्म, व्यावृत्त-धर्म) के ज्ञान से तत्वज्ञान होता है । सब मोक्षशास्त्रों में तत्व-साक्षात्कार के लिए, योगाभ्यास का प्रयोजन बताया गया है । न्यायदर्शन में कहा है, कि योगाभ्यास के कारण तत्वबुद्धि उत्पन्न होती है। यम-नियम द्वारा तथा योगशास्त्र विहित अध्यात्मविधि और उपाय-समूह द्वारा श्रात्मसंस्कार करना चाहिये । योगा- भ्यास-बनित जो धर्म है, वह जन्मान्तर में भी अनुवर्तन करता है । तत्वज्ञान के निमित्त यह धर्म बुद्धि की पराकाष्ठा को प्राप्त होता है (प्रत्रयकाष्ठागतः), और उसकी सहायता से किसी जन्म में समाधि-प्रयत्न प्रकृष्ट होता है, तब समाधि-विशप उत्पन्न होता है। उससे तत्व-शान का लाभ होता है। वैशेषिकशास्त्र में कहा है कि श्रात्म-प्रत्यक्ष योगियों को होता है तथा आत्म- कर्म से मोक्ष होता है [६,२,१६] । यह न्याय का आत्म-संस्कार है । शङ्कमिश्र ने उपस्कार में कहा है कि प्रात्मकर्म, श्रवण, मनन, योगाभ्यास, निदिध्यासन, श्रासन, प्राणायाम, और शम- दम है। योग योग-शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है। इस कारण न्याय-वैशेषिक में संकेत मात्र किया है कि तन्त्रान्तर से इस श्रात्मकर्म की प्रतिपत्ति होती है । वेदान्त में कहा है कि सूक्षपदी योगी प्रशान द्वारा श्रात्मा को जान सकता है। इसी प्रकार बौद्ध धर्म में भी तत्व-शान के लिए योग का प्रयोजन बताया गया है । बौद्ध ईश्वर और श्रामा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते तथापि उनका भी यही प्रयोजन है कि दुःख अत्यन्त निवृत्ति हो और निर्वाण का लाभ हो। योग का उपाय सबको समान रूप से स्वीकृत है। .. समाभिविशेषाम्मासात् [न्याय० ॥२॥३] । १. वर्ष ममनिषमाभ्यामामसंस्कारो योगायाध्यात्मविशुपायैः [न्याय० ॥२॥६] ।