पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९२

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२०५ बौद-धर्मदर्शन तथागताराधनमेतदेव स्वार्थस्य संसाधनमेतदेव । लोकस्य दु:खापहमेतदेव तस्मान्ममास्तु प्रतमेतदेव ॥ [बोधि०६।१२७ एक राजपुरुष जन-समूह का विमर्दन करता है और वह समूह उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता । वह अकेला नहीं है । उसको राजबल प्राप्त है। इसी प्रकार जो अपराध करता है, उसको दुर्बल समझकर अपमानित न करना चाहिये। वह अकेला नहीं है। नरक-पाल और दयामय उनके बल है । इसलिए, जैसे भृत्य कुपित राजा को प्रसन्न करता है, उसी प्रकार सत्र को सत्वों को प्रसन्न करना चाहिये । कुपित होकर भी राजा उतना कष्ट नहीं दे सकता जितना कष्ट सत्वों को अप्रसन्न कर नारकीय यातना के अनुभव से मिलता है | राजा प्रसन्न होकर यदि बड़े से बड़ा पदार्थ भी दे, तब भी वह बुद्धत्व की समता नहीं कर सकता, जो सत्वाराधन से मिलता है । सत्वाराधन से भविष्य में बुद्धत्व की प्राप्ति के साथ-साथ इस लोक में सौभाग्य, यश और सुख मिलता है । जो क्षमा करता है वह संसार में प्रारोग्य, चित्तप्रसाद, दीर्घायु और अत्यन्त सुख पाता है। वीर्य-पारमिता-जो क्षमी है, वहीं वीर्य लाभ कर सकता है । वीर्य में बोधि प्रतिष्ठित है । वीर्य के विना पुण्य नहीं है; जैसे वायु के बिना गति नहीं है । कुशल कर्म में उत्साह का होना ही वीर्य का होना है। इसके विपक्ष अालस्य, कुत्सित में आसक्ति, विपाद और श्रात्म-अवग है । संसार-दुःख का तीव्र अनुभव न होने से कुशल-कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती। इस नि.पारिता से श्रालस्य होता है | क्या नहीं जानते कि क्लेश रूपी मछुओं से अाक्रान्त तुम जन्म के जाल में पड़े हो ? क्या नहीं जानते कि मृत्यु के मुख में प्रविष्ट हो ? क्या अपने वर्ग के लोगों को, एक के बाद दूसरे को, मारे जाते नहीं देखते हो ? तुम यह देखकर भी निद्रा के मोहजाल में पड़ हो । अपने को निःशरण देखकर भी सुखपूर्वक बैठे हो। तुमको भोजन कैसे रुचता है ? नींद क्योंकर पाती हैं, और संसार में रति कैसे होती है ? आलस्य छोड़कर कुशलोत्साह की वृद्धि करो । मृत्यु अपनी सामग्री एकत्र कर शीघ्र ही तुम्हारे वध के लिए. श्रा उपस्थित होगी। उस समय तुम कुछ कर सकोगे। उस समय तुम इस चिन्ता से विहल हो जानोगे कि हा! जो काम विचारा था, वह न कर सका; जिसका प्रारंभ किया था या जिसको कुछ निष्पन्न किया था, उस कार्य को समाप्त न कर सका और बीच ही में अकरमात् मृत्यु का आक्रमण हुअा । तुम उस समय यमदूतों के मुग्न की ओर निहारोगे, तुम्हार बन्धु-बान्धव तुम्हार जीवन से निराश हो जायेंगे और शोक के वेग से उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होगी। मरण समय उपस्थित होने पर मुकृत या पापकर्म का स्मरण होने से तुमको पश्चात्ताप होगा । तुम नारक शब्दों को सुनोगे और नाम से पुरीपोत्सर्ग के कारण तुम्हार गात्र मलमूत्र से उपलिप्त हो जायेंगे । शरीर, वाणी और चित्त तुम्हारे अधीन न रहेंगे । उस समय तुम क्या करोगे ? ऐसा समझकर स्वस्थ अवस्था में ही कुशल-कर्म में प्रवृत्त होना चादिये। जिस प्रकार बहुत से लोग क्रमशः खाने के लिए ही मछलियों को पालते हैं, उनका मरण आज नहीं तो कल अवश्य होगा, उसी प्रकार सत्वों को समझना चाहिये कि अाज नहीं तो कल मृत्यु अवश्यमेव होगी । उन लोगों को विशेषकर तीव्र नारक दुःखों से