पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२८१

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वामनवाय यमान हो, तो उस समय मन को स्थिर करे । जब मन परार्थ-विमुख और स्वामिनिविष्ट होकर, लाभ, सत्कार और कीर्ति का अभिलाषी हो, तब मन को काश्वत् स्थिर करे। इस प्रकार चित्त की सर्व प्रवृत्तियों का निरोध करे और मन को निश्चल रखे। शरीर में अभिनिवेश न रखे। चित्तरहित मृतकाय व्यापार-शून्य होता है। श्रामिप-लोभी गृध्र जब शरीर को इधर-उधर खींचते हैं, तब वह श्रात्मरक्षा में समर्थ नहीं होता और प्रतिकार में असमर्थ होता है। इसलिए शरीर सर्वथा अनुपयोगी है । इसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये । इस मांस और अस्थि के पुंज को अात्मवत् स्वीकार करके इसकी रक्षा में प्रयत्नशील न होना चाहिए। नत्र यह आत्मा से भिन्न है, तब इसके अपचय मे कोई अनिष्ट सम्पादित नहीं होता। जिसको तुम अपना समझते हो, वह अपवित्र है । हम अपवित्र, अमेध्य प्रटिन यन्त्र की रक्षा में कोई लाभ नहीं है । इस नर्मपुट को अस्थि-पंजर से पृथक कर अस्थियों को ग्वण्इ-वण्ड कर मज्जा को देखे, और स्वयं विचार करे कि इसमें सारभृत क्या है। इस प्रकार यन्न-पूर्वक ढूँढ़ने पर भी जब कुछ सारवस्तु नहीं दिग्बलाई देती, तब शरीर की रक्षा व्यर्थ है । जब इसकी अंतड़ियाँ नहीं चूस सकते, इसका रक्तपान नहीं कर सकते, तब फिर इस कार्य में क्यों श्रासक्ति है ? जिसकी रक्षा केवल एन-शृगालों के आहारार्थ की जाती है, उसमें अभिनिवेश न होना चाहिये। यह शरीर मनुष्य के लिए एक उपयुक्त कोपकरण अवश्य है । जो भृत्य भृत्य-कर्म नहीं करता, उसको वस्त्रादि नहीं दिया जाता। शरीर को वेतनमात्र देना चाहिये । मन द्वारा शरीर को स्वायत्त करे। जो शरीर के स्वभाव और उपयोग को विचार कर उसको अपने वश में करता है, वह सदा प्रसन्न रहता है। वह संसार का बंधु है। यह दूसरों का स्वागत करता है। वह निष्फल कार्य नहीं करता । सदा उसकी निःशब्द में अभिरति होती है । जिस प्रकार बक, विडाल और चोर निःशब्द भ्रमण करते हुए विवक्षित अर्थ को पाते हैं, उसी प्रकार आचरण करता हुश्रा बोधिसत्व अभिमत फल पाता है। जो दूसरों को उपदेश देने में दन हैं, और बिना प्रार्थना के ही दूसरों के हित की कामना करते हैं, उनका अपमान न करना चाहिये, और उनका हितविधायक वचन श्रादर- पूर्वक ग्रहण करना चाहिये । अपने को सबका शिष्य समझना चाहिये। सबसे सब कुछ सीखना चाहिये। इस प्रकार ईर्ष्या-मल का प्रक्षालन करना चाहिये । कुशल-कर्म करने वाले को देख कर उसका पुण्य-कर्म सराहे । सत्र सत्त्वों के सारे उपक्रम तुष्टि के लिये हैं। तुष्टि धन के विसर्ग द्वारा भी दुर्लभ है। इसलिये पराये गुण को श्रवण कर विना परिश्रम किये तुष्टि-सुख का अनुभव होता है। इसमें कुछ व्यय नहीं है, और दूसरे को भी सुख मिलता है। पर दूसरे के गुण का अभिनंदन न करने से दुःख और द्वेष उत्पन्न होता है । बोधिसत्र को मित और स्निग्धभाषी होना चाहिये । किसी से कर्कश वचन न बोले । सदा सबको सरल दृष्टि से देखे, जिसमें लोग उसकी श्रोर श्राकृष्ट हों, और उसकी बात का विश्वास करें। सदा कार्य-कुशल होना चाहिये, और सत्वों के हित, सुख का विधान करने के लिये नित्य उत्थान करना चाहिये। किसी कार्य में दूसरे की अपेक्षा न करे । सब काम स्वयं करे। प्रातिमोक्ष में जिस कर्म का निषेध है, उसका श्राचरण न करे।