पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७६

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बौद-ब-वन कहते है। तदनन्तर अंबलिबद्ध हो सर्वदिशाओं में अवस्थित बुद्धों से प्रार्थना करता है कि प्रशान- सम से प्राकृत जीवों के उद्धार के लिए भगवान् धर्म का उपदेश करें। यही बुद्धाभ्येषणा है। वह फिर कृतकृत्य जिनों से याचना करता है कि वह अभी परिनिर्वाण में प्रवेश न करें, जिसमें यह लोक मार्ग का शान न होने निश्चेतन न हो जाय। यह बुद्ध-याचना है। अन्त में साधक प्रार्थना करता है कि उक्त क्रम से अनुत्तर-पूजा करने से जो सुकृत मुझे प्राप्त हुआ है, उसके द्वारा मैं समस्त प्राणियों के सर्व दुःखों का प्रशमन करने में समर्थ होऊँ, और उनको सम्यक् शान की प्राप्ति कराऊँ, यह बोधि-परिणामना है। साधक भक्तिपूर्वक प्रार्थना करता है- हे भगवन् ! जो व्याधि से पीड़ित हैं, उनके लिए मैं उस समय तक ओषधि, चिकित्सक और परिचारक होऊँ, जबतक व्याधि की निवृत्ति न हो, मैं तुधा और पिपासा की व्यथा का अन्न- जल की वर्षा से निवर्तन करू, और दुर्भिक्षान्तर कल्प जब अन्नपान के प्रभाव से प्राणियों का एक दूसरे का मांस, अस्थि-भक्षण ही श्राहार हो, उस समय मैं उनके लिए पान-भोजन बन । दद्धि लोगों का मैं अक्षय धन होऊँ । जिस जिस पदार्थ की वह अभिलाषा करें, उस उस पदार्थ को लेकर मैं उनके सम्मुख उपस्थित होऊँ । पारमितामों की साधना दान-पारमिता-बोधिसत्व बोधिचित्तोत्पाद के अनन्तर शिक्षा ग्रहण के लिए विशेष रूप से यत्नशील होता है ! पहली पारमिता दानपारमिता है। सर्व वस्तुत्रों का सब जीवों के लिए, दान और दानफल का भी परित्याग दानपारमिता है । इसलिये बोधिसत्व श्रात्मभाव का उत्सर्ग करता है । वह सर्व भाग्य वस्तुओं का परित्याग करता है, तथा अतीत, वर्तमान और अनागत-काल के कुशल-मूल का भी परित्याग करता है, जिनमें सब प्राणियों की अर्थ-सिद्धि हो । श्रात्मभाव का त्याग ही निर्वाण है। यदि निर्वाण के लिए सब कुछ त्यागना ही है तो अच्छा तो यह है कि सब कुछ माणियों को अपित कर दिया जाय । ऐसा विचार कर वह अपना शरीर सब प्राणियों के लिये अर्पित करता है । चाहे वे दण्डादि से उसकी ताड़ना करें, चाहे जुगुप्सा करें, चाहे उसपर धूल फे और चाहे उसके साथ क्रीड़ा करें; वह केवल इतना चाहता है कि उसके द्वारा किसी प्राणी का अनर्थ संपादित न हो। वह चाहता है कि बो उस पर मिथ्या दोष श्रारोपित करते.. है या उसका अपकार करते हैं या उपहास करते हैं, वे भी बुद्धत्व-लाम करें। वह चाहता है कि जिस प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार महाभूत समस्त श्राकाशधातु-निवासी अनन्त प्राणियों के अनेक प्रकार से उपभोग्य होते हैं, उसी प्रकार वह भी तब तक सब सत्वों का आश्रय- स्थान रहे जब तक सब संसार-दुश्ल से विनिर्मुक्त न हो। उसका किसी वस्तु में भी ममत्व नहीं होता। वह सब सत्वों को पुत्रतुल्प देखता है और अपने को सबका पुत्र समझता है। यदि कोई याचक उससे किसी वस्तु की याचना करता है, तो तुरंत वह वस्तु उसे दे देता है; मात्सर्य नहीं करता । बोधिसत्व के लिये ये चार पाते कुत्सित -गाव्य, मात्सर्य, ईा-पैशुन्य, और संसार में लीनचित्तता । बोधिसत्व को ऐसी